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शुक्रवार

न्यू मीडिया की अवधारणा (Concepts of New Media)

Dr Awadhesh K. Yadav (Assistant Professor)     जुलाई 25, 2025    

 सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी (ICT) की मौजूदा शताब्दी में न्यू मीडिया की सहायता से विचारों, भावनाओं, जानकारियों व अनुभूतियों का बगैर सेंसरशिप के अत्यंत तीब्र गति से सम्प्रेषण हो रहा है। इसकी सर्वप्रथम परिकल्पना 19वीं शताब्दी में ’लोकतंत्रिक सहभागी मीडिया सिद्धांत’ के प्रतिपादक जर्मनी के मैकवेल ने की थी। हालांकि, उस वक्त दुनिया में इंटरनेट का आविष्कार नहीं हुआ था, लेकिन जर्मनी में लोकतंत्र का शुभारंभ जरूर हो चुका था। लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में लोक प्रसारण अर्थात सर्वाजनिक प्रसारण के अंतर्गत समाज के आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक समेत विभिन्न क्षेत्रों में उच्च स्तरीय सुधार की अपेक्षा की गई थी, जिसे सार्वजनिक प्रसारण संगठनों ने पूरा नहीं किया। इसका मुख्य कारण मीडिया पर औद्योगिक घरानों का नियंत्रण, औद्योगिक घरानों का शासन-प्रशासन के साथ निकट सम्बन्ध, आर्थिक व सामाजिक दबाव तथा अभिजातपूर्ण व्यवहार था। ऐसी स्थिति में मैकवेल ने जनता की आवाज को सामने लाने के लिए वैकल्पिक मीडिया अर्थात न्यू मीडिया की परिकल्पना की। 


 19वीं शताब्दी के मध्य में न्यू मीडिया के रूप में अवतरित टेलीविजन ने संचार विशेषज्ञों को आश्चर्य चकित कर दिया। टोरंटो स्थित ’मीडिया स्टडीज सेंटर’ के संस्थापक मार्शल मैकलुहान ने 20वीं शताब्दी के मध्य में ’समाज पर टेलीविजन का प्रभाव’ विषयक अध्ययन किया तथा सन् 1964 में ’अंडरस्टैडिंग मीडिया: द एक्सटेंशन ऑफ मैन’ शीर्षक से पुस्तक प्रकाशित की। इनका मानना है कि संदेशों के प्रचार-प्रसार के लिए माध्यमों का विकास व विस्तार होना बेहद जरूरी है, क्योंकि संचार माध्यमों के विकास व विस्तार के साथ संदेश का प्रचार व प्रसार भी होगा। इसी आधार पर उन्होंने कहा कि ’माध्यम ही संदेश है’ (Medium is the Message)  है। 

मार्शल मैकलुहान ने टेलीविजन को प्रचार-प्रसार का उन्मादी माध्यम बताया है। इन्होंने रेडियो को ‘ट्रइबल ड्रम‘ (Tribal Dram)] फोटो को दीवार रहित वैश्यालय (Brothel-without Walls) तथा टेलीविजन को यांत्रिक दुल्हन (Mechanical Bride) की संज्ञा दी है तथा वैश्विक गांव (Global Village) की परिकल्पना की है। जिसको तत्कालीक संचार विशेषज्ञों ने 'गप' कहकर मजाक उड़ाया। न्यू मीडिया के रूप में अवतरित टेलीविजन वर्तमान शताब्दी में लाभ-हानि के सिद्धांत पर औद्योगिक घरानों द्वारा संचालित किया जा रहा है, जिसमें कार्यरत संपादक, समाचार वाचक, स्क्रीप्ट लेखक, संवाददाता, कैमरामैन व तकनीकी सहायक अपने नियोक्ता के इशारों पर गेट-कीपर का कार्य कर रहे हैं। शासन-प्रशासन को संचालित करने वाले राजनीतिज्ञ तथा सरकारी संगठनों में तैनात वरिष्ठ अधिकारी अपने-अपने तरीके से औद्योगिक घरानों को नियंत्रित करते हैं। विज्ञापनदाता भी अपने हित के लिए टेलीविजन चैनलों की विषय वस्तु को प्रभावित करते हैं। परिणामतः टेलीविजन चैनलों की विषय वस्तु आम जनों पर केंद्रीत नहीं होती है। यदि होती भी है तो उसमें प्रभावशाली व्यक्तियों का हित छुपा होता है। अतः टेलीविजन चैनल मैकवेल के न्यू मीडिया की परिकल्पना पर खरा नहीं उतरा है। 

शीत युद्धोंपरांत अवतरित इंटरनेट आधारित न्यू मीडिया किसी चमत्कार से कम नहीं है, क्योंकि वर्तमान शताब्दी में इसका उपयोग कर किसी सूचना या जानकारी को पलक झपकते ही दुनिया के किसी भी कोने में सम्प्रेषित किया जा सकता है। ताजातरीन समाचारों व जानकारियों को प्राप्त करने के लिए समाचार पत्र प्रकाशित होने का इंतजार करने की आवश्यकता भी नहीं है, जो न्यू मीडिया के कारण संभव हुआ है। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि ...आखिर न्यू मीडिया किसे कहते हैं तथा 21वीं शताब्दी में क्यों प्रासंगिक है? 

न्यू मीडिया : अधिकांश लोग न्यू मीडिया का अर्थ इंटरनेट आधारित पत्रकारिता से लगाते हैं, लेकिन न्यू मीडिया समाचारों, लेखों, सृजनात्क लेखन या पत्रकारिता तक सीमित नहीं है। वास्तव में न्यू मीडिया को परम्परागत मीडिया के आधार पर परिभाषित ही नहीं किया जा सकता है, क्योंकि इसके दायरे में मात्र समाचार पत्रों व टेलीविजन चैनलों की वेबसाइट्स मात्र नहीं आती हैं, बल्कि नौकरी ढूढ़ने व रिश्ता तलाशने वाली वेबसाइट्स, विभिन्न उत्पादों की ऑनलाइन बिक्री करने वाले वेब पोर्टल्स, स्कूलों, कालेजों व विश्वविद्यालयों में प्रवेश, पाठ्य-सामग्री, परीक्षा-परिणाम से सम्बन्धित जानकारी देने वाली वेबसाइट्स, ब्लॉग्स, ई-मेल, ई-नीलामी, ई-पुस्तक, ई-कॉमर्स, ई-बैंकिंग, चैटिंग, ऑडियो-वीडियो शेयरिंग, यू-ट्यूब तथा सोशल नेटवर्किंग साइट्स (फेसबुक, ऑरकूट, ट्वीटर, लिक्ड-इन इत्यादि) से सम्बन्धित वेबसाइट्स व साफ्टवेयर भी न्यू मीडिया के अंतर्गत आते हैं।

शाब्दिक दृष्टि से न्यू मीडिया अंग्रेजी भाषा के दो शब्दों New और Media के योग से बना है। New शब्द का अर्थ ’नया’ अर्थात ’नवीन’ तथा Media शब्द का अर्थ ’माध्यम’ होता है। इस दृष्टि से न्यू मीडिया अपने समय का सर्वाधिक नवीन माध्यम है। न्यू मीडिया का वर्तमान काल में जैसा स्वरूप है, वह न तो अतीत (भूत) काल में था और न तो भविष्यकाल में रहेगा, क्योंकि प्रारंभ में जब टेलीविजन आया था, तब उसे भी न्यू मीडिया कहा गया था। संचार व मीडिया विशेषज्ञों ने न्यू मीडिया को अपने-अपने तरीके से परिभाषित करने का प्रयास किया है। कुछ प्रमुख परिभाषाएं निम्नलिखित हैं:- 

  • लेव मैनोविच के अनुसार- न्यू मीडिया डिजिटल तकनीकों पर आधारित है, जो मॉड्यूलर डेटा, स्वचालन, और परिवर्तनशीलता (Variability) की विशेषताओं के साथ सूचना का उत्पादन और प्रसार करता है।
  • मैनुएल कास्टेल्स के अनुसार- न्यू मीडिया एक नेटवर्क समाज का हिस्सा है, जो विकेंद्रित संचार और सूचना के वैश्विक प्रवाह को सक्षम बनाता है।
  • हेनरी जेनकिन्स के अनुसार- न्यू मीडिया ‘कन्वर्जेन्स कल्चर’ को दर्शाता है, जहां विभिन्न मीडिया रूप (टेक्स्ट, ऑडियो, वीडियो) एक मंच पर एकीकृत होकर इंटरैक्टिव अनुभव प्रदान करते हैं।
  • क्ले शिर्की के अनुसार- न्यू मीडिया उपयोगकर्ता-जनित सामग्री और सामाजिक उत्पादन को बढ़ावा देता है, जिससे व्यक्तियों को सामग्री निर्माण और साझाकरण में सक्रिय भूमिका मिलती है।

उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर संक्षेप में कहा जा सकता है कि न्यू मीडिया से तात्पर्य उन डिजिटल और इंटरनेट आधारित संचार माध्यमों से है, जो परंपरागत मीडिया (जैसे प्रिंट, रेडियो, टेलीविजन) से भिन्न हैं। यह इंटरैक्टिव, उपयोगकर्ता-केंद्रित, और प्रौद्योगिकी-संचालित होता है, जो सूचना के उत्पादन, वितरण और उपभोग को नया रूप देता है


गुरुवार

संचार के प्रकार (Types of Communication)

Dr Awadhesh K. Yadav (Assistant Professor)     सितंबर 05, 2024    

       संचार मानव जीवन की बुनियादी जरूरतों में से एक है, जिसके न होने की स्थिति में मानव अधूरा होता है। अपने समाज में मानव कहीं संचारक के रूप में संदेश सम्प्रेषित करता है, तो कहीं प्रापक के रूप में संदेश ग्रहण करता है। संचार प्रक्रिया में संचारक शब्दिक संकेतों के रूप में उद्दीपकों को सम्प्रेषित कर प्रापक के व्यवहार को बदलने का प्रयास करता है। संचार केवल शाब्दिक नहीं होता है, बल्कि इसमें उन सभी क्रियाएं भी सम्मलित किया गया है, जिनसे प्रापक प्रभावित होता है। संचार प्रक्रिया में संदेश का प्रवाह संचारक से प्रापक तक होता है। इस प्रक्रिया में शामिल लोगों की संख्या के आधार पर संचार के प्रकारों का वर्गीकरण किया जाता है, क्योंकि मानव एक-दो लोगों से एक किस्म का तथा किसी समूह/समुदाय के साथ अन्य किस्म का व्यवहार करता है। संचार प्रक्रिया में शामिल लोगों की संख्या के आधार पर संचार मुख्यत: चार प्रकार का होता है :- 

I. अंत: वैयक्तिक संचार,
II. अंतर वैयक्तिक संचार,
III. समूह संचार, और
IV. जनसंचार।

I. अंत: वैयक्तिक संचार
(Intrapersonal Communication)

        यह एक मनोवैज्ञानिक क्रिया तथा मानव का व्यक्तिगत चिंतन-मनन है। इसमें संचारक और प्रापक दोनों की भूमिका एक ही व्यक्ति को निभानी पड़ती है। अंत: वैयक्तिक संचार मानव की भावना, स्मरण, चिंतन या उलझन के रूप में हो सकती है। कुछ विद्वान स्वप्न को भी अंत: वैयक्तिक संचार मानते हैं। इसके अंतर्गत् मानव अपनी केंद्रीय स्नायु-तंत्र (Central Nervous Systemतथा बाह्य स्नायु-तंत्र (Perpheral Nervous System) का प्रयोग करता है। केंद्रीय स्नायु-तंत्र में मस्तिष्क आता है, जबकि बाह्य स्नायु-तंत्र में शरीर के अन्य अंग। इस पर मनोविज्ञान और चिकित्सा विज्ञान में पर्याप्त अध्ययन हुए हंै। जिस व्यक्ति का अंत: वैयक्तिक संचार केंद्रित नहीं होता है, उसे समाज में 'पागल' कहा जाता है। मनुष्य के मस्तिष्क का उसके अन्य अंगों से सीधा सम्बन्ध होता है। मस्तिष्क अन्य अंगों से न केवल संदेश ग्रहण करता है, बल्कि संदेश सम्प्रेषित भी करता है। जैसे, पांव में चोट लगने का संदेश मस्तिष्क ग्रहण करता है और मरहम लगाने का संदेश हाथ को सम्प्रेषित करता है। 

यह एक स्व-चालित संचार प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से मानव अपना तथा अन्य दूसरों का मूल्यांकन करता है। सामाजिक विज्ञान के अध्ययन की जितनी भी प्रणालियां हैं, उन सभी का आधार अंत: वैयक्तिक संचार ही है। इसे आभ्यांतर, स्वगत या अंतरा वैयक्तिक संचार भी कहा जाता है। यह समस्त संचारों का आधार है। इसकी प्रक्रिया व्यापक होने के साथ-साथ बड़ी रहस्यवादी होती हैं। भारतीय मनीषियों ने अंत: वैयक्तिक संचार प्रक्रिया को सुधारने तथा विकास की राह पर ले जाने का लगातार प्रयास किया है, परिणामस्वरूप योग व साधना की उत्पत्ति व विकास हुआ। समाज में अंत: वैयक्तिक संचार के कई उदाहरण मौजूद हैं-

(1) शारीरिक रूप में मजबूत व्यक्ति अपनी भौतिक शक्ति के कारण सदैव दूसरों पर प्रभुत्व जमाने के लिए स्वयं से संचार करता है। 
(2) निर्धन व्यक्ति सदैव अपनी भूख मिटाने के लिए स्वयं से संचार करता है।  
(3) विद्यार्थी सदैव अच्छे अंक पाने के लिए स्वयं से संचार करता है।
(4) बेरोजगार व्यक्ति नौकरी पाने के लिए संचार करता है... इत्यादि।

विशेषताएं : अंत: वैयक्तिक संचार की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं :-  
1. इससे मानव स्वयं को संचालित करता है तथा अपने जीवन की योजनाओं को तैयार करता है।
2. मानव सुख-द:ुख का एहसास करता है। 
3. अपने जीवन के लिए उपयोगी तथा आवश्यक आयामों का आविष्कार करता है, 
4. दिल और दिमाग पर नियंत्रण रखता है, और
5. फीडबैक व्यक्त करता है। 

II. अंतर वैयक्तिक संचार
(Interpersonal Communication)
      अंतर वैयक्तिक संचार से तात्पर्य दो व्यक्तियों के बीच विचारों, भावनाओं और जानकारियों के आदान-प्रदान से है। यह आमने-सामने होता है। इसके लिए दो व्यक्तियों के बीच सम्पर्क का होना जरूरी है। अत: अंतर वैयक्तिक संचार दो-तरफा (Two-way प्रक्रिया है। यह कहीं भी स्वर, संकेत, शब्द, ध्वनि, संगीत, चित्र, नाटक इत्यादि के रूप में हो सकता है। इसमें फीडबैक तुुरंत और सबसे बेहतर मिलता है। संचारक जैसे ही किसी विषय पर अपनी बात कहना शुरू करता है, वैसे ही फीडबैक मिलने लगता है। अंतर वैयक्तिक संचार का उदाहरण मासूम बच्चा है, जो बाल्यावस्था से जैसे-जैसे बाहर निकलता है, वैसे-वैसे समाज के सम्पर्क में आता है और अंतर वैयक्तिक संचार को अपनाने लगता है। माता-पिता के बुलाने पर उसका हंसना, बोलना या भागना अंतर वैयक्तिक संचार का प्रारंभिक उदाहरण है। इसके बाद वह ज्यों-ज्यों किशोरावस्था की ओर बढ़ता है, त्यों-त्यों भाषा, परम्परा, अभिवादन आदि अंतर वैयक्तिक संचार प्रक्रिया से सीखने लगता है। पास-पड़ोस के लोगों से जुडऩे में भी अंतर वैयक्तिक संचार की महत्वपूर्ण भूमिका होती हैं।

       अंतर वैयक्तिक संचार में फीडबैक का महत्वपूर्ण स्थान है। इसी के आधार पर संचार प्रक्रिया आगे बढ़ती है। साक्षात्कार, कार्यालयी वार्तालॉप, समाचार संकलन इत्यादि अंतर वैयक्तिक संचार का उदाहरण है। अंतर वैयक्तिक संचार सामाजिक सम्बन्धों का आधार है। इसके लिए मात्र दो लोगों का मौजूद होना जरूरी नहीं है, बल्कि दोनों के बीच परस्पर अंत:क्रिया का होना भी जरूरी है। वह चाहे जिस रूप में हो। टेलीफोन पर वार्तालॉप, ई-मेल या सोशल नेटवर्किग साइट्स पर चैटिंग अंतर वैयक्तिक संचार के अंतर्गत् आते हैं। सामान्यत: दो व्यक्तियों के बीच वार्तालॉप को ही अंतर वैयक्तिक संचार की श्रेणी में रखा जाता है, परंतु कुछ संचार वैज्ञानिक तीन से पांच व्यक्तियों के बीच होने वाले वार्तालॉप को भी इसी श्रेणी में मानते हैं, बशर्ते संख्या के कारण अंतर वैयक्तिक संचार के मौलिक गुण प्रभावित न हो। संचार वैज्ञानिकों का मानना है कि जैसे-जैसे लोगों की संख्या में बढ़ोत्तरी होगी, वैसे-वैसे अंतर वैयक्तिकता का गुण कम होगा और समूह का निर्माण होगा।

विशेषताएं : अंतर वैयक्तिक संचार बेहद आंतरिक संचार है, जिसके कारण  
(1) फीडबैक तुरंत तथा बेहतर मिलता है।
(2) बाधा आने की संभावना कम रहती है।
(3) संचारक और प्रापक के मध्य सीधा सम्पर्क और सम्बन्ध स्थापित होता है।
(4) संचारक के पास प्रापक को प्रभावित करने के लिए पर्याप्त अवसर होता है।
(5) संचारक और प्रापक शारीरिक व भावनात्मक दृष्टि से एक-दूसरे के करीब होते हैं।
(6) किसी बात पर असहमति की स्थिति में प्रापक को हस्तक्षेप करने का मौका मिलता है।
(7) प्रापक के बारे में संचारक पहले से बहुत कुछ जानता है।
(8) संदेश भेजने के अनेक तरीके होते हैं। जैसे- भाषा, शब्द, चेहरे की प्रतिक्रिया, भावभंगिमा, हाथ पटकना, आगे-पीछे हटना, सिर झटकना इत्यादि।

III. समूह संचार
(Group Communication)
       यह अंतर वैयक्तिक संचार का विस्तार है, जिसमें सम्बन्धों की जटिलता होती है। समूह संचार की प्रक्रिया को समझने के लिए समूह के बारे में जानना आवश्यक है। समूह संचार को जानने के लिए समूह से परिचित होना अनिवार्य है। मानव अपने जीवन काल में किसी-न-किसी समूह का सदस्य अवश्य होता है। अपनी आवश्यकतओं की पूर्ति के लिए नये समूहों का निर्माण भी करता है। समूहों से पृथक होकर मानव अलग-थलग पड़ जाता है। समूह में जहां व्यक्तित्व का विकास होता है, वहीं सामाजिक प्रतिष्ठा बनती है। समूह के माध्यम से एक पीढ़ी के विचार दूसरे पीढ़ी तक स्थानांतरित होता है। समूह को समाज शास्त्रियों और संचार शास्त्रियों ने अपने-अपने तरीके से परिभाषित किया है। कुछ प्रमुख परिभाषाएं निम्नलिखित हैं :-  

  • मैकाइवर एवं पेज के अनुसार- समूह से तात्पर्य व्यक्तियों के किसी ऐसे संग्रह से है जो एक दूसरे के साथ सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करते हैं।
  • ऑगबर्न एवं निमकॉफ के अनुसार- जब कभी दो या दो से अधिक व्यक्ति एक साथ मिलते हैं और एक दूसरे पर प्रभाव डालते हैं तो वे एक समूह का निर्माण करते हैं।
      अत: जब कुछ लोग एक निश्चित उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक-दूसरे से पारस्परिक सम्पर्क बनाते हैं तथा एक दूसरे के अस्तित्व को पहचानते हैं तो उसे एक समूह कहते हैं। इस प्रकार से निर्मित समूह की सबसे प्रमुख विशेषता यह होती है कि सभी लोग स्वयं को समूह का सदस्य मानते हैं। समाजशास्त्री चाल्र्स एच. कूले के अनुसार- समाज में दो प्रकार के समूह होते हैं। पहला, प्राथमिक समूह (Primary Group)-  जिसके सदस्यों के बीच आत्मीयता, निकटता एवं टिकाऊ सम्बन्ध होते हैं। परिवार, मित्र मंडली व सामाजिक संस्था आदि प्राथमिक समूह के उदाहरण हैं। दूसरा, द्वितीयक समूह (Secondary Group)- जिसका निर्माण संयोग व परिस्थितिवश या स्थान विशेष के कारण कुछ समय के लिए होता है। ट्रेन व बस के यात्री, क्रिकेट मैच के दर्शक, जो आपस में विचार-विमर्श करते हैं, द्वितीयक समूह के सदस्य कहलाते हैं।

       सामाजिक कार्य व्यवहार के अनुसार समूह को हित समूह और दबाव समूह में बांटा गया है। जब कोई समूह अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कार्य करता है, तो उसे हित समूह कहा जाता है। इसके विपरीत जब अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अन्य समूहों या प्रशासन के ऊपर दबाव डालता है, तब वह स्वत: ही दबाव समूह में परिवर्तित हो जाता है। व्यक्ति समूह बनाकर विचार-विमर्श, संगोष्ठी, भाषण, सभा के माध्यम से विचारों, जानकारियों व अनुभवाओं का आदान-प्रदान करता है, तो उसे समूह संचार कहा जाता है। इसमें फीडबैक तुरंत मिलता है, लेकिन अंतर वैयक्तिक संचार की तरह नहीं। फिर भी, यह बहुत ही प्रभावी संचार है, क्योंकि इसमें व्यक्तित्व खुलकर सामने आता है। समूह के सदस्यों को अपनी बात कहने का पर्याप्त अवसर मिलता है। समूह संचार कई सामाजिक परिवेशों में पाया जाता है। जैसे- कक्षा, रंगमंच, कमेटी हॉल, बैठक इत्यादि। कई संचार विशेषज्ञों ने समूह संचार में सदस्यों की संख्या 20 तक मानते हैं, जबकि कई संख्यात्मक की बजाय गुणात्मक विभाजन पर जोर देते हैं। लिण्डग्रेन (1969) के अनुसार, दो या दो से अधिक व्यक्तियों का एक दूसरे के साथ कार्यात्मक सम्बन्ध में व्यस्त होने पर एक समूह का निर्माण होता है।
       
         समूह संचार और अंतर वैयक्तिक संचार के कई गुण आपस में मिलते हैं। समूह संचार कितना बेहतर होगा, फीडबैक कितना अधिक मिलेगा, यह समूह के प्रधान और उसके सदस्यों के परस्पर सम्बन्धों पर निर्भर करता है। समूह का प्रधान संचार कौशल में जितना अधिक निपुण तथा ज्ञानवान होगा। उसके समूह के सदस्यों के बीच आपसी सम्बन्ध व सामन्जस्य जितना अधिक होगा, संचार भी उतना ही अधिक बेहतर होगा। छोटे समूहों में अंतर वैयक्तिक संचार के गुण ज्यादा मिलने की संभावना होती है। बड़े समह की अपेक्षा छोटे समूह में संचार अधिक प्रभावशाली होता है, क्योंकि छोटे समूह के अधिकांश सदस्य एक-दूसरे से पूर्व परिचित होते हैं। सभी आपस में बगैर किसी मध्यस्थ के विचार-विमर्श करते हैं। सदस्यों को अपनी बात कहने का मौका भी अधिक मिलता है। समूह के सदस्यों के हित और उद्देश्य में काफी समानता होती है तथा सभी संदेश ग्रहण करने के लिए एक स्थान पर एकत्रित होते हैं। प्रापक पर संदेश का सकारात्मक या नकारात्मक प्रभाव उत्पन्न होता है, जिसे फीडबैक के रूप में संचारक ग्रहण करता है। 

विशेषताएं : समूह संचार में :- 
1. प्रापकों की संख्या निश्चित होती है, सभी अपनी इच्छा व सामर्थ के अनुसार सहयोग करते हैं,
2. सदस्यों के बीच समान रूप से विचारों, भावनाओं का आदान-प्रदान होता है,
3. संचारक और प्रापक के बीच निकटता होती है,
4. विचार-विमर्श के माध्यम से समस्याओं का समाधान किया जाता है,  
5. संचारक का उद्देश्य सदस्यों के बीच चेतना विकसित कर दायित्व बोध कराना होता है, 
6. फीडबैक समय-समय पर सदस्यों से प्राप्त होता रहता है, और
7. समस्या के मूल उद्देश्यों के अनुरूप संदेश सम्प्रेषित किया जाता है।

IV. जनसंचार
(Mass Communication)
       आधुनिक युग में जनसंचार  काफी प्रचलित शब्द है। इसका निर्माण दो शब्दों जन+संचार के योग से हुआ है। 'जन' का अर्थ जनता अर्थात् भीड़ होता है। ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार, जन का अर्थ पूर्ण रूप से व्यक्तिवादिता का अंत है। गिन्सवर्ग के अनुसार, जनता असंगठित और अनाकार व्यक्तियों का समूह है जिसके सदस्य सामान्य इच्छाओं एवं मतों के आधार पर एक दूसरे से बंधे रहते हैं, परंतु इसकी संख्या इतनी बड़ी होती है कि वे एक-दूसरे के साथ प्रत्यक्ष रूप से व्यक्तिगत सम्बन्ध बनाये नहीं रख सकते हैं। समूह संचार का वृहद रूप है- जनसंचार। इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग 19वीं सदी के तीसरे दशक के अंतिम दौर में संदेश सम्प्रेषण के लिए किया गया। संचार क्रांति के क्षेत्र में तरक्की के कारण जैसे-जैसे समाचार पत्र, रेडियो, टेलीविजन, केबल, इंटरनेट, वेब पोर्टल्स इत्यादि का प्रयोग बढ़ता गया, वैसे-वैसे जनसंचार के क्षेत्र का विस्तार होता गया। इसमें फीडबैक देर से तथा बेहद कमजोर मिला है। आमतौर पर जनसंचार और जनमाध्यम को एक ही समझा जाता है, किन्तु दोनों अलग-अलग हैं। जनसंचार एक प्रक्रिया है, जबकि जनमाध्यम इसका साधन। जनसंचार माध्यमों के विकास के शुरूआती दौर में जनमाध्यम मनुष्य को सूचना अवश्य देते थे, परंतु उसमें जनता की सहभागिता नहीं होती थी। इस समस्या को संचार विशेषज्ञ जल्दी समझ गये और समाधान के लिए लगातार प्रयासरत रहे। इंटरनेट के आविष्कार के बाद लोगों की सूचना के प्रति भागीदारी बढ़ी है तथा मनचाहा सूचना प्राप्त करना और दूसरों को सम्प्रेषित करना संभव हो सका।   

       जनसंचार को अंग्रेजी भाषा में Mass Communication कहते हैं, जिसका अभिप्राय बिखरी हुई जनता तक संचार माध्यमों की मदद से सूचना को पहुंचाना है। समाचार पत्र, टेलीविजन, रेडियो, सिनेमा, केबल, इंटरनेट, वेब पोर्टल्स इत्यादि अत्याधुनिक संचार माध्यम हैं। जनसंचार का अर्थ विशाल जनसमूह के साथ संचार करने से है। दूसरे शब्दों में, जनसंचार वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा बहुल रूप में प्रस्तुत किए गए संदेशों को जन माध्यमों के जरिए एक-दूसरे से अंजान तथा विषम जातीय जनसमूह तक सम्प्रेषित किया जाता है। संचार विशेषज्ञों ने जनसंचार की निम्नलिखित परिभाषा दी है :-

  • लेक्सीकॉन यूनिवर्सल इनसाइक्लोपीडिया के अनुसार- कोई भी संचार, जो लोगों के महत्वपूर्ण रूप से व्यापक समूह तक पहुंचता हो, जनसंचार है। 
  • बार्कर के अनुसार- जनसंचार श्रोताओं के लिए अपेक्षाकृत कम खर्च में पुनर्उत्पादन तथा वितरण के विभिन्न साधनों का इस्तेमाल करके किसी संदेश को व्यापक लोगों तक, दूर-दूर तक फैले हुए श्रोताओं तक रेडियो, टेलीविजन, समाचार पत्र जैसे किसी चैनल द्वारा पहुंचाया जाता है। 
  • कार्नर के अनुसार- जनसंचार संदेश के बड़े पैमाने पर उत्पादन तथा वृहद स्तर पर विषमवर्गीय जनसमूहों में द्रुतगामी वितरण करने की प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में जिन उपकरणों अथवा तकनीक का उपयोग किया जाता है उन्हें जनसंचार माध्यम कहते हैं। 
  • कुप्पूस्वामी के अनुसार- जनसंचार तकनीकी आधार पर विशाल अथवा व्यापक रूप से लोगों तक सूचना के संग्रह एवं प्रेषण पर आधारित प्रक्रिया है। आधुनिक समाज में जनसंचार का कार्य सूचना प्रेषण, विश्लेषण, ज्ञान एवं मूल्यों का प्रसार तथा मनोरंजन करना है। 
  • जोसेफ डिविटों के अनुसार- जनसंचार बहुत से व्यक्तियों में एक मशीन के माध्यम से सूचनाओं, विचारों और दृष्टिकोणों को रूपांतरित करने की प्रक्रिया है।
  • जॉर्ज ए.मिलर के अनुसार- जनसंचार का अर्थ सूचना को एक स्थान से दूसरे स्थान पहुंचाना है।
  • डी.एस. मेहता के अनुसार- जनसंचार का अर्थ जनसंचार माध्यमों जैसे- रेडियो, टेलीविजन, प्रेस और चलचित्र द्वारा सूचना, विचार और मनोरंजन का प्रचार-प्रसार करना है। 
  • रिवर्स पिटरसन और जॉनसन के अनुसार-
          - जनसंचार एक-तरफा होता है।
          - इसमें संदेश का प्रसार अधिक होता है। 
          - सामाजिक परिवेश जनसंचार को प्रभावित करता है तथा जनसंचार का असर सामाजिक परिवेश पर
            पड़ता है।
          - इसमें दो-तरफा चयन की प्रक्रिया होती है।
          - जनसंचार जनता के अधिकांश हिस्सों तक पहुंचने के लिए उपर्युक्त समय का चयन करता है। 
          - जनसंचार जन अर्थात् लोगों तक संदेशों का प्रवाह सुनिश्चित करता है।

  • डेनिस मैकवेल के अनुसार- 
        - जनसंचार के लिए औपचारिक तथा व्यस्थित संगठन जरूरी है, क्योंकि संदेश को किसी माध्यम द्वारा      
          विशाल जनसमूह तक पहुंचाना होता है।
        - जनसंचार विशाल, अपरिचित जनसमह के लिए किया जाता है।
        - जनसंचार माध्यम सार्वजनिक होते हैं। इसमें भाषा व वर्ग के लिए कोई भेद नहीं होता है। 
        - श्रोताओं की रचना विजातीय होती है तथा वे विभिन्न संस्कृति, वर्ग, भाषा से सम्बन्धित होते हैं।
        - जनसंचार द्वारा दूर-दराज के क्षेत्रों में एक ही समय पर सम्पर्क संभव है।
        - इसमें संदेश का यांत्रिक रूप में बहुल संख्या में प्रस्तुतिकरण या सम्प्रेषण होता है। 

           उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि जनसंचार यंत्र संचालित है, जिसमें संदेश को तीब्र गति से भेजने की क्षमता होती है। जनसंचार माध्यमों में टेलीविजन, रेडियो, समाचार-पत्र, पत्रिका, फिल्म, वीडियो, सीडी, इंटरनेट, वेब पोर्टल्स इत्यादि आते हैं, जो संदेश को प्रसारित एवं प्रकाशित करते हंै। जनमाध्यमों के संदर्भ में मार्शल मैक्लूहान ने लिखा है कि- च्माध्यम ही संदेश हैट्ट। माध्यम का अर्थ मध्यस्थता करने वाला या दो बिन्दुओं को जोडऩे से है। व्यावहारिक दृष्टि से संचार माध्यम एक ऐसा सेतु है जो संचारक और प्रापक के मध्य ट्यूब, वायर, प्रवाह इत्यादि से पहुंचता है।

विशेषताएं : जनसंचार की विशेषताएं काफी हद तक संदेश सम्प्रेषण के लिए प्रयोग किये गये माध्यम पर निर्भर करती है। जनसंचार माध्यमों की अपनी-अपनी विशेषताएं होती हैं। प्रिंट माध्यम के संदेश को जहां संदर्भ के लिए सुरक्षित रखा जा सकता है, भविष्य में पढ़ा जा सकता है, दूसरों को ज्यों का त्यों दिखाया व पढ़ाया जा सकता है, वहीं इलेक्ट्रॉनिक माध्यम के संदेश को न तो सुरक्षित रखा जा सकता है, न तो भविष्य में ज्यों का त्यों देखा तथा दूसरों को दिखाया जा सकता है। हालांकि इलेक्ट्रॉनिक  माध्यम के संदेश को अनपढ़ या कम पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी ग्रहण कर सकता है, लेकिन प्रिंट माध्यम के संदेश को ग्रहण करने के लिए पढ़ा-लिखा होना जरूरी है। इलेक्ट्रॉनिक माध्यम की मदद से संदेश को एक साथ हजारों किलोमीटर दूर फैले प्रापकों के पास एक ही समय में पहुंचाया जा सकता है, किन्तु प्रिंट माध्यम से नहीं। वेब द्रुतगति का जनसंचार माध्यम है। इसकी तीव्र गति के कारण देश की सीमाएं टूट चुकी हैं। इसी आधार पर मार्शल मैकलुहान ने च्विश्वग्रामज् की कल्पना की। इंटरनेट आधारित वेब माध्यम की मदद से सम्प्रेषित संदेश को प्रिंट माध्यम की तरह पढ़ा, इलेक्ट्रॉनिक माध्यम की तरह देखा व सुना जा सकता है। कम्प्यूटर के की-बोर्ड पर Ctrl S (कीज) की मदद से भविष्य के लिए सुरक्षित रखा जा सकता है। जनसंचार की निम्नलिखित विशेषताएं निम्नलिखित हैं :- 
1. विशाल भू-भाग में रहने वाले प्रापकों से एक साथ सम्पर्क स्थापित होता है,
2. समस्त प्रापकों के लिए संदेश समान रूप से खुला होता है,
3. संचार माध्यम की मदद से संदेश का सम्प्रेषण किया जाता है,
4. सम्प्रेषण के लिए औपचारिक व व्यवस्थित संगठन होता है,
5. संदेश सम्प्रेषण के लिए सार्वजनिक संचार माध्यम का उपयोग किया जाता है, 
6. प्रापकों के विजातीय होने के बावजूद एक ही समय में सम्पर्क स्थापित करना संभव होता है,
7. संदेश का यांत्रिक रूप से बहुल संख्या में प्रस्तुतिकरण या सम्प्रेषण होता है, तथा
8. फीडबैक संचारक के पास विलम्ब से या कई बार नहीं भी पहुंचता है।


    

संचार की अवधारणा (Concept Of Communication)

Dr Awadhesh K. Yadav (Assistant Professor)     अगस्त 15, 2024    

संचार एक अनवरत प्रक्रिया है। इसकी उत्पत्ति पृथ्वी पर मानव सभ्यता के साथ हुई है। प्रारंभिक युग में मानव अपनी भाव-भंगिमाओं और प्रतीक चिन्हों के माध्यम से संचार करता था, किन्तु आधुनिक युग में सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में क्रांतिकारी अनुसंधान के कारण संचार बुलन्दी पर पहुंच गया है। रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा, टेलीफोन, मोबाइल, फैक्स, इंटरनेट, ई-मेल, वेब साइट्स, टेलीप्रिन्टर, इंटरकॉम, टेली-कान्फ्रेंसिंग, केबल, समाचार पत्र, पत्रिका इत्यादि संचार के अत्याधुनिक माध्यम हैं। संचार माध्यमों को अत्याधुनिक बनाने में युद्धों की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। 


20 वीं शताब्दी के मध्य तक संचार को स्वतंत्र विषय नहीं माना जाता था। राजनीतिशास्त्र, समाजशास्त्र, मानवशास्त्र तथा मनोविज्ञान के विशेषज्ञ अपने विषय की जरूरत के मुताबिक अध्ययन करते थे। हालांकि, इसकी विशिष्टता का एहसास दुनिया को प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) के  बाद होने लगा था। एक स्वतंत्र विषय के रूप में इसके अध्ययन की आवश्यकता तब महसूस की गयी, जब द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) के दौरान जर्मनी के तानाशाह शासक हिटलर के प्रचार मंत्री गोयबल्स ने कहना शुरू किया- 'किसी झूठ को बार-बार दोहराओ तो सच हो जाता है'। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पूरी दुनिया दो गुटों में विभाजित हो गयी थी। एक गुट का साम्राज्यवादी अमेरिका तथा दूसरे गुट का साम्यवादी सोवियत संघ नेतृत्व करने लगा। दोनों महाशक्तियों के बीच विदेशी उपनिवेश से मुक्त होने वाले भारत जैसे कुछ तीसरी दुनिया के देश थे, जिन्हें अपने गुट में शामिल करने के लिए महाशक्तियों के बीच होड़ मची थी। इसके लिए दोनों अपने सैन्य बलों को अत्याधुनिक हथियारों (नाभिकीय व जैविक बमों) तथा खुफिया तंत्रों को अत्याधुनिक संचार माध्यमों से लैस करने में लगे थे। इसी दौरान अमेरिकी प्रतिरक्षा विभाग ने इंटरनेट का आविष्कार किया। सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिका ने अपने इंटरनेट का दरवाजा दुनिया को उपयोग करने के लिए खोल दिया है, जो वर्तमान समय में सबसे त्वरित गति का संचार माध्यम है।


संचार  (Communication) : संचार शब्द का सामान्य अर्थ होता है- किसी सूचना या संदेश को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक पहुंचाना या सम्प्रेषित करना। शाब्दिक अर्थों में संचार अंग्रेजी भाषा के Communication शब्द का हिन्दी रूपांतरण है। जिसकी उत्पत्ति लैटिन भाषा के Communis शब्द से हुई है, जिसका अर्थ होता है सामान्य (Commun), अर्थात्... संचार शब्द से तात्पर्य सूचना देने वाले संचारक (Communicator) और सूचना ग्रहण करने वाले प्रापक (Receiver) के मध्य उभयनिष्ठता स्थापित करने से है। इससे संचारक और प्रापक के मध्य समझदारी व साझेदारी विकसित होती है। 


दूसरे शब्दों में कहें तो संचार एक ऐसा प्रयास है जिसके माध्यम से एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के विचारों, भावनाओं एवं मनोवृत्तियों में सहभागी बनता है। संचार का आधार श्संवादश् और सम्प्रेषण है। विभिन्न विधाओं के विशेषज्ञों ने संचार को परिभाषित करने का प्रयास किया है, लेकिन किसी एक परिभाषा पर सर्वसम्मत नहीं बन सकी है। कुछ प्रचलित परिभाषाएं निम्नलिखित हैं :-

  • ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार- विचारों, जानकारी वगैरह का विनिमय, किसी और तक पहुंचाना या  बांटना, चाहे वह लिखित, मौखिक या सांकेतिक हो, संचार है।
  • चार्ल्स ई. ऑसगुड के अनुसार- आम तौर पर संचार तब होता है, जब एक सिस्टम या स्रोत किसी दूसरे या गंतव्य को विभिन्न प्रकार के संकेतों के माध्यम से प्रभावित करें ।  
  • लुईस ए. एलेन के अनुसार- संचार उन सभी क्रियाओं का योग है जिनके द्वारा एक व्यक्ति दूसरे के साथ समझदारी स्थापित करना चाहता है। संचार अर्थों का एक पुल है। इसमें कहने, सुनने और समझने की एक व्यवस्थित तथा नियमित प्रक्रिया शामिल है।
  • कैथ डैविस के अनुसार- एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को सूचना भेजने तथा समझने की विधि है। यह आवश्यक तौर पर लोगों में अर्थ का एक पुल है। पुल का प्रयोग करके एक व्यक्ति आराम से गलत समझने की नदी को पार कर सकता है।
  • ऐलन के अनुसार- संचार से तात्पर्य उन समस्त तरीकों से है, जिनको एक व्यक्ति अपनी विचारधारा को दूसरे व्यक्ति की मस्तिष्क में डालने या समझाने के लिए अपनाता है। यह वास्तव में दो व्यक्तियों के मस्तिष्क के बीच की खाई को पाटने वाला सेतु है। इसके अंतर्गत् कहने, सुनने तथा समझने की एक वैज्ञानिक प्रक्रिया सदैव चालू रहती है।
  • मैकडेविड और हरारी के अनुसार- मनोवैज्ञानिक दृष्टि से संचार से तात्पर्य व्यक्तियों के बीच विचारों और अभिव्यक्तियों के आदान-प्रदान से है।
  • क्रच एवं साथियों के अनुसार- किसी वस्तु के विषय में समान या सहभागी ज्ञान की प्राप्ति के लिए प्रतीकों का उपयोग ही संचार है। यद्यपि मनुष्यों में संचार का महत्वपूर्ण माध्यम भाषा ही है, फिर भी अन्य प्रतीकों का प्रयोग हो सकता है।


उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि किसी एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति अथवा समूह को कुछ सार्थक चिह्नों, संकेतों या प्रतीकों के माध्यम से ज्ञान, सूचना, जानकारी व मनोभावों का आदान-प्रदान करना ही संचार है।

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बुधवार

संचार के 7Cs (7Cs of Communication)

Dr Awadhesh K. Yadav (Assistant Professor)     अगस्त 14, 2024    
मानव जीवन की अनिवार्य आवश्कताओं में सबसे प्रमुख है- 'संचार'। इसके अभाव में मानव जीवन पशु समतुल्य होता है। मानव कभी घर के अंदर, तो कभी घर के बाहर, कभी कार्यालय में, तो कभी दुकान में, कभी बस स्टैण्ड में, तो कभी चलती ट्रेन में, कभी परिजनों के साथ, तो कभी सहकर्मियों के साथ, कभी ग्राहकों के साथ, तो कभी वरिष्ठ अधिकारियों के साथ, कभी मौखिक, तो कभी लिखित, कभी शब्दों में, तो कभी संकेतों में संचार करता है। 

संचार विशेषज्ञ 'फ्रांसिस बेटजिन' ने प्रभावी संचार के लिए 7Cs को महत्वपूर्ण बताया है, जिसका उपयोग कर संचारक बड़े ही आसानी से प्रापक के मस्तिष्क में अपनी बात (संदेश) को पहुंचा सकता है। 7Cs से तात्पर्य है :-

          1Cs Clarity  (स्पष्टता) 
          2Cs  Context (संदर्भ)
          3Cs  Continuty (निरंतरता)
          4Cs Credibility (विश्वसनीयता) 
          5Cs  Content (विषय वस्तु) 
          6Cs  Channel  (माध्यम)
          7Cs  : Completeness (पूर्णता) 

  1. Clarity  (स्पष्टता) : वह संदेश प्रापक को आसानी से समझ में आता है जिसमें स्पष्टता होती है। अत: सम्प्रेषण के लिए संदेश की संरचना सरल से सरल तथा सामान्य से सामान्य शब्दों में करना चाहिए। सरल व सामान्य शब्दों में सम्प्रेषित संदेश के अर्थो को समझने में प्रापक को परेशानी नहीं होती है। संचारक से प्रापक स्पष्ट शब्दों में संदेश सम्प्रेषित करने की अपेक्षा भी रखता है। यहीं कारण हैं कि उलझाऊ तथा मुहावरा युक्त संदेश को प्रापक नजर अंदाज कर देता है। 
  2. Context (संदर्भ) : संदेश में संदर्भ का होना आवश्यक है, क्योंकि संदर्भ से स्वत: ही संदेश की विश्वसनीयता बढ़ जाती है। संदर्भ के कारण संदेश में गलती होने की संभावना कम होती है। यदि किसी कारण से गलती हो भी जाती है तो वह आसानी से पकड़ में आ जाती है। संदर्भ के कारण सम्बन्धित पक्ष की सहभागीता भी सिद्ध होती है। 
  3. Continuty (निरंतरता) : संचार कभी समाप्त न होने वाली एक अनवरत् प्रक्रिया है, जिसके संदेश में एक साथ कई तथ्यों का समावेश होने की स्थिति में निरंतरता का होना आवश्यक है। यहां निरंतरता से तात्पर्य मुख्य तथ्य के बाद क्रमश: कम महत्वपूर्ण, उससे कम महत्वपूर्ण, सबसे कम महत्वपूर्ण तथा अंत में बगैर महत्व के तथ्य से है। प्रभावी संचार के लिए आदर्श संदेश वह होता है, जिसमें महत्वपूर्ण तथ्यों की पुनर्रावृत्ति होती है। इसका लाभ यह है कि यदि पहली बार में संचारक द्वारा सम्प्रेषित संदेश के अर्थ को किसी कारण से प्रापक समझ नहीं पता है तो दूसरी या तीसरी बार में अवश्य ही समझ लेता है।  
  4. Credibility (विश्वसनीयता) : संचार प्रक्रिया का मूल आधार विश्वास है, जो संचारक की नियत पर निर्भर करता है। संदेश के विश्वसनीय होने पर प्रापक के मन में संचारक के प्रति अच्छी छवि बनती है। एक समय ऐसा भी आता है, जब संचारक द्वारा सम्प्रेषित संदेश की गारंटी प्रापक स्वयं दूसरों को देने लगता है। इस दृष्टि से खरा न उतरने वाले संचारकों को प्रापक शीघ्र ही नजर अंदाज करने लगते हैं। अत: प्रभावी संचार के लिए संदेश में विश्वसनीयता का होना आवश्यक है। 
  5. Content (विषय वस्तु) : प्रापकों का निर्धारण संदेश की विषय वस्तु के आधार पर भी किया जाता है। अत: आदर्श संदेश की विषय वस्तु प्रापकों की स्थिति, कला, संस्कृति आदि के अनुरूप तैयार करना चाहिये। इससे संचारक के प्रति प्रापक का विश्वास बढ़ता है। 
  6. Channel  (माध्यम) : संचार प्रक्रिया में माध्यम की भूमिका महत्वपूर्ण होती है, क्योंकि परिस्थिति, प्रापक और संदेश के अनुसार माध्यम की प्रभावशीलता घटती-बढ़ती रहती है। अत: प्रभावी संचार के लिए माध्यम का चुनाव संदेश और प्रापक की स्थिति को ध्यान में रखकर करना आवश्यक है। संचारक को ऐसे माध्यम का चुनाव करना चाहिए, जिसकी प्रापक के बीच पहुंच होने के साथ-साथ लोकप्रियता भी हो। नये माध्यमों का चुनाव काफी सोच-विचार कर करना चाहिए। कई बार नये संचार माध्यम अप्रभावी साबित होते हैं। 
  7. Completeness (पूर्णता) : प्रभावी संचार के लिए संदेश में पूर्णता का होना आवश्यक है। यहां पूर्णता से तात्पर्य सम्पूर्ण जानकारी से है। जिस संदेश में पूर्ण या सम्पूर्ण जानकारी होती है, उसे ग्रहण करने के उपरांत प्रापक आत्म-संतोष महसूस करते हैं। 
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मंगलवार

शाब्दिक और अशाब्दिक संचार (Verbal and Non-Communication)

Dr Awadhesh K. Yadav (Assistant Professor)     अगस्त 13, 2024    
  
     संचार प्रक्रिया में शब्दों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इसके बगैर संदेश की संरचना और सम्प्रेषण संभव नहीं है। संदेश का सम्प्रेषण चाहे मौखिक हो या लिखित, दोनों ही परिस्थितियों में शब्दों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। शब्दों के आविष्कार से पूर्व मानव प्रतिक चिन्हों तथा अपनी भाव-भंगिमाओं के माध्यम से संदेश सम्प्रेषण करता था। इस आधार पर संचार मुख्यत: दो प्रकार के होते हैं- पहला, शाब्दिक संचार और दूसरा, अशाब्दिक संचार।

शाब्दिक संचार 
(Verbal Communication)  

शाब्दिक संचार की प्रक्रिया काफी जटिल है। इसके बावजूद शाब्दिक संचार के माध्यम से मानव में बौद्धिकता का विकास होता है। मानवीय संचार में शब्दों का सर्वाधिक प्रयोग किया जाता है। लरनर के शब्दों में- मानव अपनी ज्ञानेन्द्रियों द्वारा संचार प्रक्रिया से गुजरता है, जिसमें स्वर द्वारा संचार को प्राथमिकता प्राप्त है। क्योंकि मानव किसी वस्तु के बारे में ज्ञानेन्द्रियों द्वारा चाहे जो भी सोचें व अनुभव करें, परंतु जब तक उसे शाब्दिक रूप नहीं देगा, तब तक उसका सम्पूर्ण विवरण दूसरों को सम्प्रेषित नहीं कर सकता है। तात्पर्य यह है कि शब्दों के अभाव में व्यापक संचार की कल्पना संभव नहीं है। शाब्दिक संचार दो प्रकार के होते हैं। पहला, मौखिक संचार और दूसरा, लिखित संचार।

(i) मौखिक संचार (Oral Communication) : वे सूचनाएं लिखित या लिपिबद्ध न होकर केवल जुबानी भाषा में प्रापक तक पहुंचती है, उसे मौखिक संचार कहते हैं। संचार की इस प्रक्रिया द्वारा संचारक एवं प्रापक के मध्य संवाद स्थापित होता है। एप्पले के अनुसार- मौखिक शब्दों द्वारा पारस्परिक संचार संदेश वाहन की सर्वश्रेष्ठ कला है। मौखिक संचार द्वारा सामूहिक ज्ञान व विचार का धीरे-धीरे विकास होता है। मौखिक संचार का उपयोग मनुष्यों के साथ-साथ पशुओं 'बंदर व तोता' द्वारा भी किया जाता है। मौखिक संचार निजी अनौपचारिक तथा लचीला होता है, जो व्याकरणगत् तथा अन्य नियमों से बंधा नहीं होता है।

मौखिक संचार के माध्यम : मौखिक संचार के दौरान संदेश सम्प्रेषित करने के लिए यथाउचित माध्यम का होना जरूरी है। माध्यम का चुनाव करते समय परिस्थिति को ध्यान में रखना आवश्यक है, क्योंकि सभी माध्यम सभी परिस्थितियों में उपयुक्त नहीं होते हैं। मौखिक संचार के प्रचलित माध्यम निम्नलिखित हैं :- 
(1) वार्तालॉप : सामान्यत: दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच विचारों के विनियम को वार्तालॉप कहते है। यह द्वि-मार्गीय प्रक्रिया है, जिसमें संचारक और प्रापक आमने-सामने बैठकर विचार-विमर्श करते हैं। इससे आपसी समझ विकसित होती है तथा दोनों को स्वतंत्र रूप से अपने विचारों को व्यक्त करने का मौका मिलता है। व्यवसाय, विपणन, संगठन, संस्थान, सरकार में मौखिक संचार का विशेष महत्त्व है। गुरू-शिष्य, पति-पत्नी, मालिक-नौकर, वरिष्ठ-कनिष्ठ के बीच वार्तालॉप इसके उदाहरण हैं। 
(2) प्रेस सम्मेलन : इसके अंतर्गत् विभिन्न समाचार पत्रों, टीवी चैनलों तथा समाचार एजेंसियों के संवाददाताओं को आमंत्रित कर किसी घटना विशेष या जानकारी से अवगत कराया जाता है। संवाददाता सम्बन्धित घटना या जानकारी को प्रिंट माध्यमों में प्रकाशित तथा इलेक्ट्रॅानिक माध्यमों में प्रसारित करके जनता व सरकार तक पहुंचाते हैं। प्रेस सम्मेलन का आयोजन राजनीतिज्ञ, सरकार के प्रतिनिधि या लोक प्रशासक, शैक्षिक संस्थानों के प्रमुख आदि के द्वारा आयोजित किया जाता है। लोकतंत्र में प्रेस सम्मेलन को जनसंचार का शक्तिशाली माध्यम माना जाता है। 
(3) प्रदर्शन : प्रदर्शन भी मौखिक संचार का एक माध्यम है। इसका उपयोग औद्योगिक क्षेत्र में विपणन (मार्केटिंग) सम्बन्धी नीतियों के निर्धारण में किया जाता है। लोकतांत्रिक देशों में जनमत को अपने पक्ष में करने के लिए प्रदर्शन का सहारा लिया जाता है। प्रदर्शन के माध्यम से सेल्समैन अपनी कम्पनी के उत्पाद की विशेषताओं को बतला कर उपभोक्ताओं में अभिरूचि पैदा करने का प्रयास करता है। विभिन्न सरकारी व गैर-सरकारी संगठनों के सदस्य अपनी मांगों के संदर्भ में सरकार व उच्चाधिकारियों का ध्यान आकर्षित करने लिए प्रदर्शन करते हंै। 
(4) भाषण : मौखिक संचार में भाषण का महत्वपूर्ण स्थान है। भाषण के कई रूप होते हैं। अध्यापक के भाषण को व्याख्यान, उपदेशक के भाषण को प्रवचन कहा जाता है। भाषण कला संचार का एक शक्तिशाली माध्यम है, जो वक्ता (संचारक) और श्रोता (प्रापक) को आपस में जोडऩे का कार्य करता है। प्रभावपूर्ण भाषण में आत्मीयता, क्रमबद्धता, अभिनेयता, निर्भीकता आदि गुणों का समावेश आवश्यक होता है। 
(5) वाद-विवाद : जब किसी विषय के संदर्भ में लोगों के विचार अलग-अलग होते हैं। विचार-विमर्श के दौरान सम्बन्धित विषय के पक्ष में कुछ लोग अपना तर्क देते है तथा कुछ लोग विपक्ष में। सभी अपने-अपने तर्को से एक-दूसरे के विचारों का खण्डन-मण्डन करते हैें, तो इस प्रक्रिया को वाद-विवाद कहते हैं। वाद-विवाद भी मौखिक संचार का प्रभावशाली माध्यम है। 
(6) विचार गोष्ठी : यह व्याख्यान की छोटी श्रृंखला होती है। इसमें वक्ताओं की संख्या दो से पांच तक होती है। सहयोगी विषय से सम्बन्धित प्रश्न पूछते हैं, जिसका उत्तर अन्य सहयोगी देते हैं। वक्ताओं की संख्या के आधार पर विषय के विभिन्न पहलुओं को विभाजित किया जाता है। सभी वक्ता अलग-अलग पहलुओं पर अपने विचार व्यक्त करते हैं। 
(7) पैनल वार्ता : पैनल वार्ता में विशेषज्ञों का छोटा समूह बड़े समूह से वार्ता करता है। इसमें एक संयोजक होता है, जो वार्ता में भाग लेने वाले सदस्यों का परिचय कराता है और वार्ता के सारांश को प्रस्तुत करता है। इसमें एक व्यक्ति अध्यक्ष या संयोजक की भूमिका का निर्वहन कर सम्पूर्ण वार्तालाप पर नियंत्रण रखता है।
(8) सम्मेलन : मौखिक संचार का एक माध्यम सम्मेलन भी है। सम्मेलन से तात्पर्य एक ऐसी बैठक से है, जिसे विचार-विमर्श के लिए आहूत की जाती है। सम्मेलन में किसी समस्या के समाधान के लिए दो या दो से अधिक व्यक्तियों के विचारों को एकत्रित किया जाता है। जैसे- राजनीतिज्ञों, वरिष्ठ अधिकारियों और वैज्ञानिकों के विचार, जिससे किसी समस्या का समाधान किया जा सकता है। 

मौखिक संचार की विशेषताएं : 
(1) कम समय में अधिक लोगों के साथ संवाद संभव,  
(2) त्रुटियां होने की कम संभावना,
(3) समय की बचत,  
(4) विचार-विनिमय से व्यक्तिगत सम्बन्धों में मधुरता, 
(5) आपातकालीन परिस्थितियों में अत्यन्त उपयोगी, 
(6) द्रुतगति से संदेश का सम्प्रेषण,  
(7) कागज, कलम, कम्प्यूटर, टाइपराइटर व टाइपिस्ट की जरूरत नहीं, और 
(8) प्रापक से फीडबैक मिलने की पूरी संभावना होती है। 

 (ii)  लिखित संचार (Written Communication) : मौखिक संचार से संदेश सम्प्रेषण की संभव समाप्त होने की स्थिति में लिखित संचार एक महत्वपूर्ण माध्यम होता है। लिखित संचार से तात्पर्य ऐसी सूचनाओं से है जो शब्दों में तो होती है, लेकिन उसका स्वरूप मौखिक न होकर लिखित होती है। प्रभावी संचार के लिए लिखित संदेश में जहां स्पष्टता व शुद्धता आवश्यक है, वहीं व्याकरण सम्बन्धी नियमों का कड़ाई से पालन किया जाता है। नोटिस, स्मरण पत्र, प्रस्ताव, शपथ पत्र, शिकायत पत्र, नियुक्ति पत्र, पदोन्नति पत्र, वित्तीय प्रारूप इत्यादि लिखित संचार के उदाहरण हैं। 

लिखित संचार के माध्यम : लिखित संचार माध्यमों का उपयोग विभिन्न सरकारी, गैर-सरकारी संस्थाओं में सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए किया जाता है। इसके अभाव में संस्थागत नीतियों, योजनाओं तथा क्रिया-कलापों की जानकारी देना संभव नहीं है। लिखित संचार के प्रचलित माध्यम निम्नलिखित हैं :-
(1) सूचना पट्ट : यह लिखित संचार का सर्वाधिक प्रचलित माध्यम है, जिसे स्कूल-कालेज, सरकारी-गैर सरकारी विभागों के कार्यालयों में देखा जा सकता है। प्राय: सूचना पट्ट पर दैनिक सूचनाएं दी जाती है, जो संक्षिप्त होती हैं। ऐसी सूचनाओं को पढऩे और समझने में एक मिनट से अधिक का समय नहीं लगता है।   
(2) समाचार बुलेटिन: किसी संस्था, संगठन या विभाग के कार्यालय समाचारों की लिखित सूचना को समाचार बुलेटिन कहते हंै। कहीं समाचर बुलेटिन को सूचना पट्ट पर चस्पा कर दिया जाता है, तो कहीं गृह पत्रिका के रूप में प्रकाशित किया जाता है। समाचार बुलेटिन के माध्यम से कर्मचारियों को संस्था, संगठन या विभाग की नीतियों, कार्यों, योजनाओं, नियमों तथा भविष्य की रणनीतियों से अवगत कराया जाता है। 
(3) प्रिंट मीडिया : लोगों को सूचनाओं एवं विचारों से अवगत कराने का लिखित माध्यम है- प्रिंट मीडिया। इसके अंतर्गत् समाचार-पत्र व पत्रिकाएं आती है, जो वाह्य लिखित संचार का प्रभावी माध्यम है। इनमें घटनाओं एवं विचारों की विस्तृत जानकारी प्रकाशित होती है। समाचार पत्रों का दैनिक व साप्ताहिक तथा पत्रिका का साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, अद्र्धवार्षिक एवं वार्षिक प्रकाशन होता है। 
(4) नियम पुस्तिका : उच्चस्तरीय प्रशासक सरकार एवं संगठन की नीतियों के अनुरूप नियम बनाते तथा पुस्तिका के रूप में प्रकाशित कराते हैं, जिससे अधीनस्थ कर्मचारियों को पता चलता हैं कि उन्हें क्या करना है... किस बात पर विशेष ध्यान देना है? नियम पुस्तिका वाह्य एवं आंतरिक लिखित संचार का महत्वपूर्ण माध्यम है।    
(5) कार्यालय आदेश : यह लिखित संचार का परम्परागत् माध्यम है, जिसको संस्था, संगठन या विभाग के प्रमुख द्वारा अधीनस्थों के स्थानांतरण, पदोन्नति, वेतनवृद्धि तथा अन्य आदेशों का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए निकाला जाता है। प्रारंभ में कार्यालय आदेश हस्तलिखित होते थे। तकनीकी विकास के साथ-साथ टाइपराइटर और कम्प्यूटर का प्रयोग भी कार्यालय आदेश तैयार करने में किया जाने लगा है।   
(6) पत्र : प्राय: लिखित संदेश को पत्र कहते हैं। यह कई प्रकार के होते है, जैसे- शिकायती पत्र, स्मरण पत्र, सुझाव पत्र इत्यादि। सभी सरकारी, गैर-सरकारी कार्यालयों में एक निश्चित स्थान पर शिकायत एवं सुझाव पत्र पेटिका रखी होती है। इसका उपयोग कोई भी व्यक्ति कर सकता है। पत्र लिखित संचार का माध्यम है।
(7) फार्म : यह एक निश्चित प्रारूप में होता है, जिसका उपयोग विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया जाता है। फार्म के माध्यम से नियत स्थान पर नाम, पिता का नाम, घर का पता, जन्मतिथि, टेलीफोन नम्बर समेत विभिन्न जानकारी लिखने के लिए जगह रिक्त रहता है।   
(8) पुस्तकें : यहभी लिखित संचार का प्रमुख माध्यम है। साहित्यकार, चिंतक, विचारक, दार्शनिक पुस्तकों के माध्यम से अपने विचारों को दूसरों तक पहुंचाने का कार्य करते हंै। इससे जनता में जागृति आती है। 

लिखित संचार की विशेषताएं 
(1) मौखिक संचार की तुलना में अधिक विश्वसनीय,  
(2) भविष्य में साक्ष्य और संदर्भ के रूप में प्रस्तुतिकरण संभव, 
(3) संचारक और प्रापक की एक साथ मौजूदगी जरूरी नहीं, 
(4) कम लागत में स्पष्ट और विस्तृत जानकारी,
(5) संदेश की शत-प्रतिशत गोपनीयता, 
(6) ज्ञान को पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्थानांतरण, और 
(7) कमजोर स्मृति के लोगों के लिए लाभकारी होता है। 

   अशाब्दिक संचार
(Non-Verbal Communication

संचार केवल शाब्दिक ही नहीं बल्कि अशाब्दिक भी होता है। जैसे, आवाज का उतार-चढ़ाव, शारीरिक मुद्रा, मुखाभिव्यक्ति इत्यादि। ऐसे संकेतों को अशाब्दिक संचार कहते है। अशाब्दिक संचार के अंतर्गत् विचारों व भावनाओं को बगैर शब्दों के अभिव्यक्त किया जा सकता है। कई स्थानों पर जब विचारों व भावनाओं को शब्दों में व्यक्त करना संभव नहीं होता है। तब अशाब्दिक संचार ही सबसे प्रभावी माध्यम होता है। अन्य शब्दों में, शब्द रहित संचार अशाब्दिक संचार है जिसके अंतर्गत् अपने अनुभवों एवं व्यवहारजन्य संकेतों के आधार पर संचारक अपनी बात को प्रापक तक पहुंचाता है। अशाब्दिक भाषा के अंतर्गत् गुप्त संदेश छुपा होता है। 

अशाब्दिक संचार के माध्यम : संचार विशेषज्ञ मेहराबियन ने सन् 1972 में अपने अध्ययन के दौरान पाया कि मानव 55 प्रतिशत संचार अशाब्दिक, 38 उच्चारण से तथा शेष 7 प्रतिशत शब्दों में करता है। अशाब्दिक संचार के प्रमुख माध्यम निम्नप्रकार हैं :- 
(1) शारीरिक मुद्रा : यह अशाब्दिक संचार का सबसे महत्वपूर्ण माध्यम है। संचार प्रक्रिया के दौरान हाथ हिलाने, हाथों से संकेत करने, मुंह हिलाने, इधर-उधर चलने से पता चलता है कि संचारक कैसा महसूस कर रहा है? इसी प्रकार, चेहरा और आंखों के हावभाव से सुख-दु:ख, विश्वास-अविश्वास इत्यादि का संचार होता है, जिसकी व्याख्या प्रापक आसानी से कर लेता है।
(2) वेशभूषा : वेशभूषा भी अशाब्दिक संचार का माध्यम है। इससे सामने वाले की मन:स्थिति का पता चलता है। वेशभूषा से खुशी या गम की जानकारी मिलती है। कपड़ों के अलावा भी कुछ अन्य सामग्री (जैसे- आभूषण, सेंट, घड़ी, टोपी, जूते, चश्मा, मोबाइल इत्यादि) महत्वपूर्ण है। इनसे भी कुछ न कुछ संचार अवश्य होता हंै। हालांकि इससे क्या संदेश निकलेगा, यह अलग-अलग व्यक्ति के व्यवहार, विचार, पृष्ठभूमि पर निर्भर करता है। जैसे- नौजवानों का हेयर स्टाइल और कपड़ों की पसंद अलग-अलग होती है। इनमें कोई गंभीर प्रवृत्ति का होता है तो कोई बिंदास।  
(3) स्पर्श : यह भी अमौखिक संचार का महत्वपूर्ण माध्यम है। इसके उदाहरण समाज में अक्सर देखने को मिलते हैं। उदाहरणार्थ, भीड़ में आपने किसी को स्पर्श किया और वह आपको आगे जाने के लिए जगह दे देता है। आप चले भी जाते हैं, लेकिन आपने शब्दों में बोलकर जगह नहीं मांगी होती है। आपके स्पर्श करने से सामने वाला समझ जाता है कि आपको आगे जाना है। यह अमौखिक संचार है। इसी प्रकार स्नेहवश किसी के गाल को थपथपाना, दु:ख की घड़ी में किसी के सिर या कंधे पर हाथ रखना व बांह पकडऩा, दोस्तों से हाथ मिलाना इत्यादि अमौखिक संचार है। 
(4) निकटता : दूसरे व्यक्ति से हमारा सम्बन्ध कैसा है। यह निकटता के सिद्धांत से पता चलता है। उदाहरणार्थ, एक मीटर की दूरी पर आत्मीय, तीन मीटर की दूरी व्यक्तिगत् और इससे ज्यादा दूरी पर सामाजिक सम्बन्ध बनते हैं, जो मौखिक संचार के अंतर्गत् आते हंै।
(5) सम्पर्क : यदि दो लोग गर्मजोशी के साथ आपस में हाथ मिलाते हैं। इसके बाद गले मिलते हैं, तो इससे पता चलता है कि दोनों एक दूसरे से पूर्व परिचित हैं तथा दोनों के बीच अच्छे रिश्ते हैं। इसके विपरीत यदि दो लोग औपचारिक रूप से हाथ मिलाते हैं, तो इसका अर्थ है कि दोनों एक दूसरे को या तो अच्छी तरह से जानते नहीं हैं। यदि जानते हैं तो दोनों के बीच रिश्ते अच्छे नहीं हैं। 
(6) व्यक्तित्व : मानव का कद, रंग, बातचीत करने का तौर-तरीका, चलने की स्टाइल इत्यादि से काफी हद तक उसके व्यक्तित्व के बारे में जानकारी मिलती है। इस प्रकार का व्यक्तित्व अशाब्दिक संचार का माध्यम है।
(7) आंखों की गति : एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से कितने देर तक आंखे मिलाकर वार्ताालॉप करता है। यह दोनों व्यक्तियों के रिश्तों के बारे में अमौखिक रूप से पता चलता है। 

अशाब्दिक संचार की विशेषताएं 
(1) संचारक और प्रापक भाषाई दृष्टि से एक दूसरे से अपरिचित होते है, तब भी प्रभावी होता है। 
(2) संदेश सम्प्रेषण में समय और शक्ति दोनों की बचत होती है। 
(3) इसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है। 
(4) अशाब्दिक संचार से मौखिक संचार प्रभावी बनता है।
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(यह चौथी सत्ता ब्लाग के मॉडरेट द्वारा लिखित पुस्तक- 'भारत में जनसंचार एवं पत्रकारिता' का संपादित अंश है। उक्त पुस्तक को मानव संसाधन विकास मंत्रालय की विश्वविद्यालय स्तरीय पुस्तक निर्माण योजना के अंतर्गत हरियाणा ग्रंथ अकादमी, पंचकूला ने प्रकाशित किया है। पुस्तक के लिए 0172-2566521 पर हरियाणा ग्रंथ अकादमी तथा 7018381096 पर लेखक से सम्पर्क किया जा सकता है।)

सोमवार

संचार प्रारूप (Communication Modal)

Dr Awadhesh K. Yadav (Assistant Professor)     अगस्त 12, 2024    

        पृथ्वी पर मानव सभ्यता के साथ जैसे-जैसे संचार प्रक्रिया का विकास होता गया, वैसे-वैसे संचार के प्रारूपों का भी। अत: संचार का अध्ययन प्रारूपों के अध्ययन के बगैर अधूरा माना जाता है। समाजिक विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों जैसे- समाजशास्त्र, मानवशास्त्र, मनोविज्ञान, संचार शास्त्र, प्रबंध विज्ञान इत्यादि के अध्ययन, अध्यापन व अनुसंधान में प्रारूपों की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। समाज वैज्ञानिकों व संचार विशेषज्ञों ने अपने-अपने समय के अनुसार संचार के विभिन्न प्रारूपों का प्रतिपादन किया है। सामान्य अर्थों में हिन्दी भाषा के "प्रारूप' शब्द से अभिप्राय रेखांकन से लिया जाता है, जिसे  अंग्रेजी भाषा में Modal कहते हैं। 
ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार- प्रारूप से अभिप्राय किसी वस्तु को उसके लघु रूप में प्रस्तुत करना है। प्रारूप वास्तविक संरचना न होकर उसकी संक्षिप्त आकृति होती है। जैसे- पूरी दुनिया को बताने के लिए छोटा सा 'ग्लोब'। किसी सामाजिक घटना अथवा इकाई के व्यवहारिक स्वरूप को बताने के लिए अनुभव के सिद्धांत के आधार पर तैयार की गई सैद्धांतिक परिकल्पना को प्रारूप कहते हैं। दूसरे शब्दों में- प्रारूप किसी घटना अथवा इकाई का वर्णन मात्र नहीं होता है, बल्कि उसकी विशेषताओं को भी प्रदर्शित करता है। प्रारूप के माध्यम से व्यक्त की जाने वाली जानकारी या सूचना, वास्तविक जानकारी या सूचना के काफी करीब होता है। इस प्रकार, प्रारूप देखने में भले ही काफी छोटा होता है, लेकिन अपने अंदर वास्तविकता की व्यापकता को समेटे होता है। विभिन्न समाजशास्त्रियों ने प्रारूप को निम्न प्रकार से परिभाषित किया है :-
  • प्रारूप प्रतीकों एवं क्रियान्वित नियमों की एक ऐसी संरचना है, जो किसी प्रक्रिया के अस्तित्व से सम्बन्धित बिन्दुओं के समानीकरण के लिए संकल्पित की जाती है।
  • प्रारूप संचार यथा- घटना, वस्तु, व्यवहार का सैद्धान्तिक तथा सरलीकृत प्रस्तुतिकरण है।
  • किसी घटना, वस्तु अथवा व्यवहारात्मक प्रक्रिया की चित्रात्मक, रेखात्मक या वाचिक अभिव्यक्ति का प्रारूप है।
  • प्रारूप एक ऐसी विशेष प्रक्रिया या प्रविधि है, जिसे किसी अज्ञात सम्बन्ध अथवा वस्तुस्थिति की व्याख्या के लिए संदर्भ बिन्दु के रूप में प्रयुक्त किया जाता है।
        संचार एक जटिल प्रक्रिया है, जिसमें परिवर्तनशीलता का गुण पाया जाता है। परिवर्तनशीलता के अनुपात में संचार प्रक्रिया की जटिलता घटती-बढ़ती रहती है। संचार प्रारूप सिद्धांतों पर आधारित संचरना होती है, जिसमें व्यक्ति व समाज पर पडऩे वाले प्रभावों की अवधारणाओं को भी सम्मलित किया जाता है। अत: संचार प्रारूप की संरचना संचार प्रक्रिया की समझ व परिभाषा पर निर्भर करती है। संचार शास्त्री डेविटो के शब्दों में- संचार प्रारूप संचार की प्रक्रियाओं व विभिन्न तत्वों को संगठित करने में सहायक होती है। ये प्रारूप संचार के नये-नये तथ्यों की खोज में भी निर्णायक भूमिका निभाते हैं। अनुभवजन्य व अन्वेषणात्मक कार्यों द्वारा ये प्रारूप भावी अनुसंधान के लिए संचार से सम्बन्धित प्रश्नों का निर्माण करते हैं। इन प्रारूपों की मदद से संचार से सम्बन्धित पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। संचार की विभिन्न प्रक्रियाओं व तत्वों का मापन किया जा सकता है।  
एक तरफा संचार प्रारूप
(One-way Communication Modal)

संचार का यह प्रारूप तीर की तरह होता है, जिसके अंतर्गत संचारक अपने सदेश को सीधे प्रापक के पास प्रत्यक्ष रूप से सम्प्रेषण करता है। इसका तात्पर्य यह है कि एक तरफ संचार प्रारूप के अंतगर्त केवल संचारक अपने विचार, जानकारी, अनुभव इत्यादि को सूचना के रूप में सम्प्रेषित करता है। उपरोक्त सूचना के संदर्भ में प्रापक अपनी कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करता है अथवा प्रतिक्रिया करता है तो संचारक उससे अंजान रहता है। एक तरफा संचार प्रक्रिया की परिकल्पना सर्वप्रथम हिटलर और रूजवेल्ट जैसे तानाशाह शासकों ने की, लेकिन इसका प्रतिपादन 20वीं शताब्दी के तीसरे दशक के दौरान अमेरिकी मनोवैज्ञानिकों ने किया। अमेरिकी प्रतिरक्षा विभाग ने कार्ल होवलैण्ड की अध्यक्षता में अस्त्र परिचय कार्यक्रम का मूल्यांकन करने के लिए गठित मनोवैज्ञानिकों की एक विशेष कमेटी ने अपने अध्ययन के द्वारा पाया कि संचारक द्वारा प्रत्यक्ष रूप से सम्प्रेषित संदेश का प्रापकों पर अधिक प्रभाव पड़ता है। इस अध्ययन पर आधारित रिपोर्ट 1949 में प्रकाशित हुई। इसको अद्यो्रलिखित रेखाचित्र द्वारा समझा जा सकता है :- 
  
          इस प्रारूप से स्पष्ट है कि सूचना का प्रवाह संचारक से प्रापक तक एक तरफा होता है, जिसमें संचार माध्यम मदद करते हैं। रेडियो, टेलीविजन, समाचार पत्र इत्यादि की मदद से सूचना का सम्प्रेषण एक तरफा संचार का उदाहरण है। इस प्रारूप का सबसे बड़ा दोष यह है कि इसमें सूचना के प्रवाह को मात्र संचार माध्यमों की मदद से दर्शाया गया है, जबकि समाज में सूचना का प्रवाह बगैर संचार माध्यमों के प्रत्यक्ष भी होता है। 

दो तरफा संचार प्रारूप
(Two- way Communication Modal)

        संचार के इस प्रारूप में संचारक और प्रापक की भूूमिका समान होती है। दोनों अपने-अपने तरीके से संदेश सम्प्रेषण का कार्य करते हैं। प्रत्यक्ष रूप से आमने-सामने बैठकर संदेश सम्प्रेषण के दौरान रेडियो, टेलीविजन, समाचार पत्र जैसे संचार माध्यमों की जरूरत नहीं पड़ती है। दो तरफा संचार प्रारूप में संचारक और प्रापक को समान रूप से अपनी बात कहने का पर्याप्त अवसर मिलता है। संचारक और प्रापक के आमने-सामने न होने की स्थिति में दो तरफा संचार के लिए टेलीफोन, मोबाइल, ई-मेल, एसएमएस, ई-मेल, सोशल नेटवर्किंग साइट्स, चैटिंग, अंतर्देशीय व पोस्टकार्ड जैसे संचार माध्यम की जरूरत पड़ती है। इसमें टेलीफोन, मोबाइल, ई-मेल व एसएमएस, ई-मेल, सोशल नेटवर्किंग साइट्स व चैटिंग अत्याधुनिक संचार माध्यम है, जिनका उपयोग करने से संचारक और प्रापक के समय की बचत होती है, जबकि अंतर्देशीय व पोस्टकार्ड परम्परागत संचार माध्यम है, जिसमें संचारक द्वारा सम्प्रेषित संदेश को प्रापक तक पहुंचने में पर्याप्त समय लगता है। समाज में दो तरफा संचार माध्यम के बगैर भी होता है। पति-पत्नी, गुरू-शिष्य, मालिक-नौकर इत्यादि के बीच वार्तालॉप की प्रक्रिया दो तरफा संचार का उदाहरण है।

       उपरोक्त प्रारूप से स्पष्ट है कि सूचना का प्रवाह संचारक से प्रापक की ओर होता है। समय, काल व परिस्थिति के अनुसार संचारक और प्रापक की भूमिका बदलती रहती है। संचारक से संदेश ग्रहण करने के उपरान्त प्रापक जैसे ही अपनी बात को कहना शुरू करता है, वैसे ही वह संचारक की भूमिका का निर्वाह करने लगता है। इसी प्रकार उसकी बात को सुनते समय संचारक की भूमिका बदलकर प्रापक की हो जाती है। 

संचारक के तत्व (Elements of Communication)

Dr Awadhesh K. Yadav (Assistant Professor)     अगस्त 12, 2024    


संचार एक सतत् प्रक्रिया है जिसमें निम्न छ: तत्व एक निश्चित उद्देश्य की पूर्ति के लिए आपस में क्रिया-प्रतिक्रिया करते  हैं ।  

(i)  संचारक (Communicator) : संचार प्रक्रिया में संचारक की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। यह प्रापक की समस्याओं एवं आवश्यकताओं के अनुरूप संदेश का निर्माण करता है। संचारक संदेश का स्रोत व निर्माता होता है। दूसरे शब्दों में, संचारक वह व्यक्ति होता है जो संचार प्रक्रिया की शुरूआत करता है। इसे कम्युनिकेटर, सेंडर, स्रोत, सम्प्रेषक, एनकोडर, संवादक इत्यादि नामों से जाना जाता है। सम्प्रेषित संदेश का प्रापक पर क्या और कितना प्रभाव होगा, यह संचारक के सम्प्रेषण कला और ज्ञान के स्तर पर निर्भर करता है।
 
(iiसंदेश (Message) : संचार प्रक्रिया में विचारों व अनुभवों का सम्प्रेषण होता है। विचार व अनुभव को ही संदेश कहते हैं। दूसरे शब्दों में- प्रापक से संचारक जो कुछ कहना चाहता है वह संदेश है। संदेश लिखित, मौखिक, प्रतीकात्मक तथा शारीरिक हाव-भाव के रूप में होता है। संदेश को अंतर्वस्तु (Contents) भी कहा जाता है। प्राय: संदेश का निर्माण अंत:वैयक्तिक संचार के रूप में होता है, लेकिन यह जरूरी नहीं है वह उसी रूप में प्रापक तक पहुंचे। एक संदेश अलग-अलग माध्यमों से अलग-अलग प्रापकों तक अलग-अलग रूपों में पहुंचता है। संदेश का निर्माण करते समय संचारक को संदेश की विषय वस्तु, संदेश की विवेचना, संदेश माध्यम, प्रापक के ज्ञान का स्तर इत्यादि को ध्यान में रखना चाहिये। इनमें से किसी एक का गलत चयन होने पर प्रभावी संचार संभव नहीं है। 

(iiiमाध्यम (Channel) : संचार प्रक्रिया मे माध्यम सेतु की तरह होता है, जो संचार और प्रापक को जोडऩे का कार्य करता है। संदेश किस तरह के श्रोताओं तक, किस गति से तथा कितने समय में पहुंचाना है, यह माध्यम पर निर्भर करता है। समाचार पत्र, टेलीविजन चैनल, रेडियो, वेब पोर्टल्स, ई-मेल, फैक्स, टेलीप्रिंटर, मोबाइल इत्यादि संचार के अत्याधुनिक माध्यम हैं। सम्प्रेषित संदेश की सफलता उसके माध्यम पर निर्भर करती है। उदाहरणार्थ, समाचार पत्र व ई-मेल से भेजा गया संदेश केवल साक्षर लोगों के बीच, जबकि रेडियो व टेलीविजन से सम्प्रेषित संदेश साक्षर व निरक्षर दोनों के बीच प्रभावी होता है। इसका तात्पर्य है कि माध्यम और संदेश के बीच सामंजस्य पर संचार की प्रभावशीलता निर्भर करती है। 

(ivप्रापक (Receiver) : प्रापक उस व्यक्ति को कहते है,  जिसको ध्यान में रखकर संचारक अपने संदेश का निर्माण, उचित माध्यम का चुनाव और सम्प्रेषण करता है। प्रापक कोई एक व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह हो सकता है। प्रापक को संग्राहक, ग्रहणकर्ता, प्राप्तकर्ता, रिसीवर, डिकोडर इत्यादि नामों से जाना जाता है। संचारक द्वारा सम्प्रेषित संदेश को प्रापक पढक़र, सुनकर, देखकर, चख कर व स्पर्श कर ग्रहण करता है। देखने या सुनने या पढऩे या सोचने की क्षमता के अभाव में प्रापक संदेश के अर्थो को शत-प्रतिशत ग्र्रहण नहीं सकता है।  

(vफीडबैक (Feedback) : संचारक से संदेश ग्रहण करने के उपरांत प्रापक उस पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करता है, जिसे प्रति-उत्तर, प्रतिपुष्टि व फीडबैक कहा जाता है। बेहतर संचार के लिए बेहतर फीडबैक का होना आवश्यक है। फीडबैक से ही पता चलता है कि संचारक के संदेश को प्रापक ने ग्रहण किया है या नहीं। अनुभवी संचारक सम्प्रेषण के दौरान ही प्रापक से फीडबैक लेना शुरू कर देता है, क्योंकि वह जैसे ही बोलना शुरू करता है, वैसे ही प्रापक अपने चेहरे व हाव-भाव से प्रतिक्रिया व्यक्त करना शुरू कर देता है। फीडबैक से संचारक को पता चलता है कि संदेश सम्प्रेषण में गलती हो रही है या नहीं। फीडबैक सकारात्मक या नकारात्मक तथा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हो सकता है। 

(v) शोर (Noise) : संचार प्रक्रिया में शोर एक प्रकार का अवरोध है, जो सम्प्रेषित संदेश के प्रभाव को कम करता है। शोर को बाधा भी कहा जाता है। संचारक जिस रूप में संदेश को भेजता है, उसी रूप में प्रापक तक शत-प्रतिशत पहुंच जाये तो माना जाता है कि संचार प्रक्रिया में कोई अवरोध नहीं है। लेकिन ऐसा कम ही होता है। सभी सम्प्रेषित संदेश के साथ कोई न कोई शोर अवश्य जुड़ जाता है, जो संचारक द्वारा भेजा गया नहीं होता है। उदाहरणार्थ, रेडियो या टेलीविजन पर आवाज के साथ सरसराहट का आना। मोबाइल पर वार्तालाप के दौरान आसपास की ध्वनियों का जुड़ जाना इत्यादि। 

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संचार प्रक्रिया (Communication Process)

Dr Awadhesh K. Yadav (Assistant Professor)     अगस्त 12, 2024    
आदिकाल में आज की तरह संचार माध्यम नहीं थे, तब भी मानव संचार करता था। वर्तमान युग में संचार माध्यमों की विविधता के कारण संचार प्रक्रिया में तेजी आ यी है, लेकिन उसके सिद्धांतों में कोई परिवर्तन नहीं आया है। कहने का तात्पर्य यह है कि प्राचीन संचार माध्यमों और आधुनिक संचार माध्यमों में संचार प्रक्रिया का सैद्धांतिक स्वरूप एक जैसा ही है। सामान्यत: संचार पांच प्रक्रियाओं में सम्पन्न होता है, जो निम्नवत् है :- 

पहली प्रक्रिया : संचार की पहली प्रक्रिया में मुख्यत: तीन तत्व भाग लेते हैं- संचारक, संदेश और प्रापक। इसके अंतर्गत् संचार एक-मार्गीय होता है। संचारक द्वारा सम्प्रेषित संदेश सीधे प्रापक तक पहुंचता है। 
  

उपरोक्त रेखाचित्र से स्पष्ट है कि संचार की पहली प्रक्रिया में संचारक और प्रापक की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। संचार को तभी प्रभावी या सार्थक कहा जा सकता है, जब संचारक और प्रापक, मानसिक व भावनात्मक दृष्टि से  एक ही धरातल पर हो तथा संचारक द्वारा सम्प्रेषित संदेश के अर्थो को प्रापक समझता हो।

दूसरी प्रक्रिया : संचार की दूसरी प्रक्रिया के अंतर्गत् संचारक और प्रापक को क्रमश: एक-दूसरे की भूमिका निभानी पड़ती है। इसके परिणाम स्वरूप दोनों के मध्य एक पारस्परिक सम्बन्ध स्थापित होता है। 
 

     उपरोक्त रेखाचित्र से स्पष्ट है कि संचार प्रक्रिया द्वि-मार्गीय होने के कारण निरंतर चलती रहती है। इसके अंतर्गत् संचारक से संदेश ग्रहण करने के उपरांत प्रापक जैसे ही कुछ कहना शुरू करता है, वैसे ही संचारक की भूमिका में आ जाता है। उसकी बातों को सुनते समय संचारक की भूमिका बदलकर प्रापक जैसी हो जाती है। 

तीसरी प्रक्रिया : संचार की तीसरी प्रक्रिया के अंतर्गत् संचारक निर्णय लेता है कि उसे कब, क्या, किसे और किस माध्यम (Channel) से सम्प्रेषित करना है। अर्थात् संचारक संदेश सम्प्रेषित करने के लिए संचार माध्यम का चुनाव करता है। 
 
उपरोक्त रेखाचित्र के माध्यम से स्पष्ट है कि संचारक अपने संदेश और प्रापक की स्थिति के अनुसार संचार माध्यम का चुनाव करता है। संचारक अपने संदेश को बोलकर, लिखकर, रेखाचित्र बनाकर या शारीरिक क्रिया द्वारा सम्प्रेषित कर सकता है। प्रापक सुनकर, पढक़र, देखकर या छूकर संदेश को ग्रहण कर सकता है।

चौथी प्रक्रिया : संचार की चौथी प्रक्रिया के अंतर्गत् प्रापक किसी माध्यम से प्राप्त संचारक के संदेश को ग्रहण करने के उपरान्त अपने ज्ञान के स्तर के आधार पर व्याख्या करता है। तदोपरान्त बोलकर, लिखकर या अपनी भाव-भंगिमाओं से प्रतिक्रिया (Feedback) व्यक्त करता है।

उपरोक्त रेखाचित्र से स्पष्ट है कि संचार प्रक्रिया के दौरान प्रापक से फीडबैक प्राप्त करते हुए एक कुशल संचारक अपनी बात को आगे बढ़ाता है तथा संदेश में आवश्यकतानुसार बदलाव भी करता है। फीडबैक न मिलने की स्थिति में संचारक का उद्देश्य अधूरा रह जाता है।

पांचवी प्रक्रिया : संचार प्रक्रिया में संचारक अपने संदेश को गुप्त भाषा में कूट (Incode) करता है और किसी माध्यम से सम्प्रेषित करता है। प्रापक संदेश को प्राप्त करने के बाद गुप्त भाषा को समझ (Decode) लेता है तथा अपना फीडबैक व्यक्त कर देता है, तो संचार प्रक्रिया पूरी हो जाती है। इस प्रक्रिया में कई तरह की बाधाएं आती है, जिससे संदेश कमजोर, विकृत और अप्रभावी हो जाता है। 


उपरोक्त रेखाचित्र में संचारक (Incoder) वह व्यक्ति है जो संचार प्रक्रिया को प्रारंभ करता है। संदेश शाब्दिक और अशाब्दिक दोनों तरह का हो सकता है। किसी माध्यम से संदेश प्रापक तक पहुंचता है। प्रापक संदेश को प्राप्त करने के बाद व्याख्या (Decode) करता है, फिर प्रतिक्रिया  (Feecback) व्यक्त करता है। तब प्रापक Decader कहलाता है। इस प्रक्रिया में कुछ बाधा  (Noise) उत्पन्न होती है, जिससे संचार का प्रवाह/प्रभाव कम हो जाता है।
--------------The End --------------

(यह चौथी सत्ता ब्लाग के मॉडरेट द्वारा लिखित पुस्तक- 'भारत में जनसंचार एवं पत्रकारिता' का संपादित अंश है। उक्त पुस्तक को मानव संसाधन विकास मंत्रालय की विश्वविद्यालय स्तरीय पुस्तक निर्माण योजना के अंतर्गत हरियाणा ग्रंथ अकादमी, पंचकूला ने प्रकाशित किया है। पुस्तक के लिए 0172-2566521 पर हरियाणा ग्रंथ अकादमी तथा 7018381096 पर लेखक से सम्पर्क किया जा सकता है।)

शनिवार

फीडबैक (Feedback)

Dr Awadhesh K. Yadav (Assistant Professor)     नवंबर 02, 2013    

संचार प्रक्रिया में फीडबैक उस प्रतिक्रिया को कहते हैं, जिसे प्रापक अभिव्यक्त तथा संचारक ग्रहण करता है। सामान्यत: संचार प्रक्रिया प्रारंभ होते ही प्रापक अपने चेहरे, शारीरिक गति तथा हाव-भाव से प्रतिक्रिया व्यक्त करने लगता है। जैसे- प्रापक का ध्यान केद्रीत होने से पता चलता है कि उसकी संदेश में दिलचस्पी है, चेहरे पर मुस्कुराहट होने से पता चलता है कि प्रापक संदेश में आत्म संतोष महसूस कर रहा है... इत्यादि। इस प्रकार फेस-टू-फेस अभिव्यक्त की जाने वाली प्रतिक्रिया का आधार अंत:वैयक्ति संचार है। फीडबैक को उतिउत्तर या प्रतिपुष्टि भी कहते हैं। संचार विशेषज्ञों ने अपने-अपने तरीके से फीडबैक का वर्गीकरण किया है। 

तथ्यों के आधार पर फीडबैक मुख्यत दो प्रकार के होते हैं- संदेशात्मक और स्वउत्तरात्मक। संचारक द्वारा सम्प्रेषित संदेश के मूल भावों की प्रधानता वाली प्रतिक्रिया को संदेशात्मक फीडबैक कहते हैं। यह संपादन, प्रतिक्रियात्मक, युक्तिपूर्ण, दृश्यात्मक व अन्य प्रकार की हो सकती है। स्वउत्तरात्मक फीडबैक में प्रापक अपने व्यक्तिगत विचारों को अभिव्यक्त करते हैं तथा अपनी प्रतिक्रिया में प्रापक अक्सार बोलता है कि- जहां तक मैंने सुना है, ...जहां तक मैं समझता हूं, ...जहां तक मैं जानता हूं, ...जहां तक मैंने देखा है ...इत्यादि को आधार बनाकर संचारक द्वारा सम्प्रेषित सूचना को परिभार्जित करता है या करने का प्रयास करता है।

प्रकृति के आधार पर फीडबैक दो प्रकार के हाते हैं- प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष। प्रत्यक्ष फीडबैक में प्रापक स्वयं अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करता है, जबकि अप्रत्यक्ष फीडबैक सर्वेक्षण, अनुसंधान इत्यादि पर आधारित होने के कारण एक निश्चित प्रक्रिया से गुजरने के बाद पूर्ण होती है। इसी प्रकार, सूचना प्रवृत्ति के आधार पर भी फीडबैक दो प्रकार के होते हैं- सकारात्मक और नकारात्मक। सकारात्मक भाव उत्पन्न करने वाली प्रतिक्रिया को सकरात्मक फीडबैक तथा नकारात्मक भाव उत्पन्न करने वाली प्रतिक्रिया को नकारात्मक फीडबैक कहते हैं। कोलम्बिया विश्वविद्यालय के प्रो. पॉल एफ.लेजर्सफेल्ड ने 1948 में प्रतिपादित अपने व्यक्तिगत प्रभाव सिद्धांत (दो-चरणीय प्रवाह सिद्धांत) में फीडबैक पर विशेष जोर दिया है। इनके अनुसार- संचार का प्रथम प्रवाह संचार माध्यम से ओपिनियन लीडर तक तथा दूसरा प्रवाह ओनिनियन लीडर से सामान्य जनता तक होता है। संचार माध्यमों से प्राप्त संदेश को ओपिनियन लीडर अपने फीडबैक के रूप में ही सामान्य जनता तक पहुंचाता है।       
 फीडबैक संचारक के लिए काफी महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसी से संचार को मंजिल या पूर्णता मिलती है।। फीडबैक से ही संचारक को सम्प्रेषित सूचनाओं के संदर्भ में प्रापकों की राय, सूचना के दोष तथा प्रापकों की प्राथमिकता का पता चलता है। जनसंचार संगठनों को भी अपने कार्यक्रमों के संदर्भ में पाठकों व दर्शकों के फीडबैक का इंतजार रहता है, जिसे संपादक के नाम पत्र, ई-मेल, ब्लॉग, फेसबुक, ट्वीटर, विचार-विमर्श, परिचर्चा, साक्षात्कार इत्यादि से एकत्र करते हैं। इन्हीं के आधार बनाकर सूचना, समाचार व अन्य कार्यक्रम की प्राथमिकता को निर्धारण करते हैं। 

संचार माध्यम (Communication Medium)

Dr Awadhesh K. Yadav (Assistant Professor)     नवंबर 02, 2013    


         संचार माध्यम को अंग्रेजी मे Communication Medium संचार माध्यम का प्रभाव समाज में अनादिकाल से ही रहा है। संचार माध्यम स्रोत एवं श्रोता के मध्य एक मध्य-स्थल दृश्य है जो मुख्यत: सूचना को संचारक से लेता है तथा प्रापक को देता है। प्रकृति के आधार पर संचार माध्यमों का वर्गीकरण निम्नलिखित है :-
  1.  परम्परागत माध्यम : संचार के परम्परागत माध्यम का उद्भव अनादिकाल में ही हो गया था। तब मानव संचार का अर्थ तक नहीं जानता था। सभ्यता के विकास से मुद्रण के आविष्कार तक परम्परागत माध्यमों से ही संदेश का सम्प्रेषण (संचार) होता था। इन माध्यमों द्वारा सम्प्रेषित संदेश का प्रभाव समाज के साक्षर और निरक्षर दोनों तरह के लोगों पर होता था। इसके अंतर्गत धार्मिक प्रवचन, हरिकथा, सभा, पर्यटन, गारी, गीत, संगीत, लोक संगीत, नृत्य, रामलीला, रासलीला, कठपुतली, कहानी, कथा, किस्सा, मेला, उत्सव, चित्र, शीला-लेख, संकेत इत्यादि आते हैं। इस प्रकार के परम्परागत माध्यम अनादिकाल से ही संदेश सम्प्रेषण के साथ मनोरंजन का कार्य भी करते आ रहे हैं। दंगल (कुश्ती), खेलकूद, लोकगीत प्रतियोगिता के आयोजन के पीछे प्रतिभाओं को प्रोत्साहन देने के साथ-साथ लोगों के समक्ष स्वस्थ्य मनोरंजन प्रस्तुत करना था। 
  1. मुद्रित माध्यम : जर्मनी के जॉन गुटेनवर्ग ने टाइप का निर्माण किया, जो मुद्रण (प्रिंटिंग प्रेस) का आधार बना है। मुद्रण के आविष्कार के बाद संचार के क्षेत्र में क्रांति आ गयी। हालांकि इससे पूूर्व हस्तलिखित पत्रों के माध्यम से सूचना सम्प्रेषण का कार्य प्रारंभ हो चुका था, लेकिन उसकी पहुंच कुछ सीमित लोगों तक ही थी। मुद्रित माध्यम के प्रचलन के बाद संचार को मानो पर लग गया। प्रारंभ में मुद्रित माध्यम के रूप में केवल पुस्तक को प्रचलन था, किन्तु बाद में समाचार पत्र, पत्रिका, पम्पलेट, पोस्टर इत्यादि मुद्रित माध्यम के रूप में संचार का कार्य करने लगे। वर्तमान समय में भी शिक्षित जनमानस के बीच मुद्रित माध्यमों का काफी प्रचलन है। मुद्रण तकनीकी के क्षेत्र में लगातार हो रहे विकास ने मुद्रित माध्यमों को पहले की अपेक्षा काफी अधिक प्रभावी बना दिया है। मुद्रित माध्यमों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इनके संदेश को कई बार पढ़ा, दूसरो को पढ़ाया तथा साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत करने के लिए सुरक्षित रखा जा सकता है। 
  1. इलेक्ट्रॉनिक माध्यम : टेलीग्राफ के आविष्कार से संचार को इलेक्ट्रानिक माध्यम मिल गया। इसकी मदद से दूर-दराज के क्षेत्रों में त्वरित गति से सूचना का सम्प्रेषण संभव हो सकता। इसके बाद क्रमश: टेलीफोन, रेडियो, वायरलेस, सिनेमा, टेप रिकार्डर, टेलीविजन, वीडियो कैसेट रिकार्डर, कम्प्यूटर, मोडम, इंटरनेट, सीडी/डीवीडी प्लेयर, पॉडकास्टर इत्यादि के आविष्कार से संचार क्रांति आ गई। इलेक्ट्रॉनिक संचार माध्यमों को उनकी प्रकृति के आधार पर श्रव्य और दृश्य-श्रव्य माध्यमों में विभाजित किया जा सकता है। श्रव्य माध्यम के अंतर्गत टेलीफोन, रेडियो, वायरलेस, टेपरिकार्डर इत्यादि तथा दृश्य-श्रव्य माध्यम के अंतर्गत सिनेमा, टेलीविजन, वीडियो कैसेट प्लेयर, सीडी/डीवीडी प्लेयर इत्यादि आते हैं। इलेक्ट्रॉनिक संचार माध्यम को द्रूतगति का संचार माध्यम भी कहते हैं। इनकी मदद से लाखों-करोड़ों की संख्या वाले तथा दूर-दूर तक बिखरे लोगों के पास सूचना का सम्प्रेषण संभव हो सका है। 

 संचार के उपरोक्त तीनों माध्यम मानव सभ्यता के विकास का परिचायक है। तीनों की अपनी-अपनी विशेषताएं है। संचार क्रांति के मौजूदा युग में भी परम्परागत माध्यम अपने अस्तित्व को बनाए रखने में सक्षम है, क्योंकि मुद्रित माध्यम माध्यम की केवल पढ़े-लिखे तथा इलेक्ट्रॉनिक की केवल साधन सम्पन्न समाज के बीच लोकप्रियता है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि भारत गांवों का देश है, जहां की 70 फीसदी आबादी की अर्थव्यवस्था का प्रमुख साधन खेती-किसानी है। गांवों की हालात 21वीं शताब्दी के दूसरे दशक में भी संतोष जनक नहीं है। कमोवेश यहीं स्थिति तीसरी दुनिया के अधिकांश देशों की है। 


संचार मार्ग (Communication Channel)

Dr Awadhesh K. Yadav (Assistant Professor)     नवंबर 02, 2013    

            सूचना स्रोत (संचारक) और सूचना प्राप्त करने वाले (प्रापक) के बीच संचार मार्ग एक सेतू की तरह होता है, जिसकी सहायता से संचारक अपने संदेश को सम्प्रेषित करता है तथा प्रापक सम्प्रेषित संदेश को ग्रहण करता है। कहने का तात्पर्य है कि किसी स्रोत द्वारा सम्प्रेषित सूचना संचार मार्ग से होकर ही प्रापक तक पहुंचती है। सम्प्रेषित सूचना शाब्दिक और अशाब्दिक हो सकती है, जिसे क्रमश: बोलकर, लिखकर या अन्य मानव व्यवहारों (चित्रकारी, मूक अभिनय, शारीरिक मुद्रा इत्यादि) से सम्प्रेषित किया जाता है। प्रापक सम्प्रेषित सूचना को सुनकर, पढक़र, देखकर या स्पर्श कर ग्रहण करते हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि संचार प्रक्रिया में संचार मार्ग वह होता है जिसके द्वारा प्रापक तक संदेश पहुंचता है। सामान्य शब्दों में, संचार मार्ग वह साधन है, जो स्रोत द्वारा सम्प्रेषित सूचना संकेत को ढ़ोकर बंदरगाह से समुद्र और पुन: किनारे अर्थात संचारक से प्रापक तक पहुंचती है। शैशन-वीवर ने अपने गणितीय संचार प्रारूप में सुधारात्मक व औचित्यपूर्ण संचार मार्ग (Correctional Channel)  जैसी नई अवधारणा का प्रतिपादन किया है, जिसका मुख्य उद्देश्य कोलाहल (शोर) के कारण उत्पन्न होने वाली समस्याओं को दूर करता है। सुधारात्मक संचार मार्ग का उपयोग एक प्रेषक द्वारा किया जाता है जो प्रारंभिक रूप में सम्प्रेषित सूचना संकेत की तुलना ग्रहण किये गये सूचना संकेत से करता है तथा दोनों के असमान होने की स्थिति में अतिरिक्त संकेतों द्वारा त्रुटियों को सही करता है। 

              विलबर श्राम के अनुसार- प्रत्येक संचार मार्ग की अपनी प्रवृत्ति होती है, जिसे अन्य संचार माध्यमों से संपादित नहीं किया जा सकता है। जैसे- जनसंचार माध्यम और परम्परागत माध्यम, जिनके व्यापक संचार मार्ग की भिन्नता एक-दूसरे के अस्तित्व का आधार है। इस प्रकार जनसंचार में कभी-कभी मध्यस्थता तथा प्रत्यारोपण के मानक स्थापित होते हैं, क्योंकि प्रिंट अथवा विद्युतीय संचार मार्ग संचारक और प्रापक को जोड़ते हैं। तकनीकी विकास के कारण मौखिक रूप से होने वाला अंतर वैयक्तिक संचार प्रिंट, विद्युतीय व उपग्रह संचार मार्ग के कारण विश्वव्यापी हो गया है। 

            संचार मार्ग के सम्प्रेषित सूचना को प्रापक आंखों से देखकर तथा कानों से सुनकर ग्रहण करता है। इनमें कौन सा संचार मार्ग ज्यादा प्रभावी है- आंखों से देखा हुआ या कानों से सुना हुआ, अथवा दोनों का मिश्रित मार्ग। समाचार पत्र अर्थात प्रिंट मीडिया आंखों से देखकर पढ़ा जाने वाला संचार मार्ग है, जबकि इलेक्ट्रानिक मीडिया का रेडियो केवल कानों से सुना जाने वाला तथा टेलीविजन आंखों से देखा और कानों से सुना (दोनों) जाने वाला संचार मार्ग है। 

शैशन और वीवर का गणितीय संचार प्रारूप (Shannon and Weaver’s Mathetical Theory of Communication)

Dr Awadhesh K. Yadav (Assistant Professor)     नवंबर 02, 2013    

संचार के गणितीय प्रारूप का प्रतिपादन 1949 में अमेरिका के क्लाउड ई.शैशन और वारेन वीवर ने संयुक्त रूप से किया, जो मूलत: टेलीफोन द्वारा संदेश सम्प्रेषण की प्रक्रिया पर आधारित है। शैशन मूलत: गणितज्ञ व इलेक्ट्रानिक इंजीनियर थे, जिनकी दिलचस्पी संचार शोध के क्षेत्र में थी। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका के न्यू जर्सी स्थित वेल टेलीफोन लेबोरेट्री में अङ्गिन नियंत्रक तथा क्रिप्टोग्राफर के पद की जिम्मेदारियों को संभालने वाले क्लाउड ई.शैशन ने पहली बार 1948 में टेलीफोन संचार प्रक्रिया को प्रारूप के रूप में दुनिया को समझाया तथा 1949 में अमेरिका के ही वैज्ञानिक शोध एवं विकास विभाग में कार्यरत अपने साथी वारेन वीवर के साथ मिलकर संचार के गणितीय सिद्धांत नामक पुस्तक प्रकाशित किया। इस पुस्तक में शैशन और वीवर ने पूर्व के संचार प्रारूप को संशोधित करके प्रस्तुत किया। इस प्रकार, शैशन और वीवर द्वारा प्रतिपादित संचार के गणितीय प्रारूप में मुख्यत: छह तत्वों- सूचना स्रोत, सूचना प्रेषक, संचार मार्ग, शोर, प्रापक व गन्तव्य स्थल का उल्लेख किया गया है। इसे निम्नलिखित रेखाचित्र के माध्यम से समझा जा सकता है:- 

        उक्त प्रारूप में संचार का प्रारंभ सूचना स्रोत से होता है जो संदेश को उत्पन्न करता है। सूचना प्रेषक के रूप में कार्य करने वाला वाचिक यंत्र के माध्यम से अपने संदेश को सूचना स्रोत (संचारक) सम्प्रेषित करता है। संचार मार्ग में संदेश का प्रवाह प्रापक के सुनने तक होता है, जिससे संदेश अपने गन्तव्य स्थल तक पहुंचता है। इस प्रक्रिया में शोर एक प्रकार का व्यवधान है, जो संचार के प्रभाव को विकृत या कमजोर करने का कार्य करता है। शैशन और वीवर के गणितीय संचार प्रारूप को अभियांत्रिक व सूचना सिद्धांत प्रारूप भी कहते हैं। 

         सूचना और शोर : किसी भी सूचना का स्रोत व्यक्ति या संस्थान (संचारक) होते हैं, जो प्रतिदिन भारी संख्या में सूचनाओं को संकलित करने तथा समाज (प्रापक) के लिए महत्व सूचनाओं को सम्प्रेषित करने का कार्य करते हैं। सूचना सम्प्रेषण प्रक्रिया के दौरान संचार मार्ग में किसी न किसी कारण से शोर उत्पन्न होता है, जिससे सूचना विकृत व प्रभावित होती है। सूचना सम्प्रेषण प्रक्रिया में शोर की अवधारणा को सर्व प्रथम शैशन-वीवर ने प्रस्तुत किया। इनके गणितीय संचार प्रारूप की सबसे बड़ी विशेषता भी शोर ही है। शोर से तात्पर्य संचार मार्ग में आने वाले व्यवधान से है, जिसके प्रभाव के कारण संदेश अपने वास्तविक अर्थों में प्रापक तक नहीं पहुंचता है। यदि सूचना प्रेषक द्वारा सम्प्रेषित सूचना संकेत संचार मार्ग से होते हुए अपने वास्तविक रूप में प्रापक तक पहुंच जाती है तो माना जाता है कि संचार मार्ग में कोई व्यवधान नहीं है, लेकिन ऐसा कम ही होता है। सामान्यत: सम्प्रेषित सूचना संकेत के साथ कोई न कोई शोर अवश्य ही जुड़ जाता है। शोर जितना अधिक होता है, व्यवधान भी उसी अनुपात में उत्पन्न होता है। इसके विपरीत, शोर के कम होने की स्थिति में व्यवधान भी कम होता है तथा संचार प्रक्रिया बेहतर रूप में सम्पन्न होती है। शैशन और वीवर ने शोर के कारण उत्पन्न होने वाले व्यवधान को कम करने के लिए शब्द-बहुलता के सिद्धांत पर जोर दिया है, जिसका तात्पर्य है- किसी संदेश को बार-बार बोलना या दुहराना। दूसरे शब्दों में, जिस सूचना या संदेश के विकृत होने की संभावना होती है, लोग उसे बार-बार बोलते या दुहराते हैं। यदि संचारक एक ही वाक्य को बार-बार बोलता है या दुहराता है तो उसका उद्देश्य संदेश को उसके वास्तविक अर्थो में प्रापक तक पहुंचाना है।

          शैशन और वीवर ने संचार के गणितीय प्रारूप का प्रतिपादन संचार प्रक्रिया के दौरान संचार मार्ग में आने वाले सूचना संकेतों में से उन संकेतों को अलग करने के लिए किया, जिसका उद्देश्य कूटबद्ध संकेतों को कम से कम अशुद्धियों के साथ प्रापक तक पहुंचाना था। शैशन और वीवर ने संदेश सम्प्रेषण के दौरान व्यवधान उत्पन्न करने वाले शोर को दो प्रकारों में विभाजित किया है- संचार मार्ग शोर और शब्दार्थ शोर।

1. संचार मार्ग शोर : भौतिक माध्यमों से सूचना सम्प्रेषण के दौरान उत्पन्न होने वाले व्यवधान को संचार मार्ग शोर कहते हैं, जिनके बहुत से संकेतार्थ होते हैं। इन संकेतार्थो को संचार मार्ग शोर का महत्वपूर्ण घटक माना जाता है। विभिन्न माध्यमों के संचार मार्गो को तकनीकी अवस्था व कार्य निष्पादन, संचार मार्गो की सामाजिक व भौतिक उपलब्धि तथा वास्तविक संदेशों की जनसमुदाय तक पहुंच के द्वारा पहचाना जा सकता है। अंतर-वैयक्तिक संचार के संदर्भ में संचार मार्ग शोर को संचारक और प्रापक के मध्य उपस्थित किसी भी प्रकार के व्यवधान से समझा जा सकता है। शब्द-बहुलता के सिद्धांत का उपयोग कर संचार मार्ग में व्याप्त शोर को कम या अप्रभावी किया जा सकता है।         
                              

2. शब्दार्थ शोर :  जब प्रेषक अपनी स्थिति तथा मनोदशा के कारण सूचना को गलत समझ लेता है, जिसके कारण उत्पन्न होने वाले व्यवधान को शब्दार्थ शोर कहते हैं। ऐसी स्थिति में प्रापक सम्प्रेषित सूचना को संचारक की आवश्यकता व इच्छा के अनुरूप अर्थ प्रदान नहीं करता है। शब्दार्थ शोर का दूसरा कारण संचारक द्वारा सामान्य शब्दों का प्रयोग न करना भी है, क्योंकि सूचना सम्प्रेषण के दौरान यदि संचारक कठीन या दो अर्थो वाले शब्दों का प्रयोग करता है तो उसके वास्तविक अर्थ को समझने में प्रापक को परेशानी होती है। यदि प्रापक वास्तविक अर्थ को समझ लेता है तो किसी भी प्रकार का व्यवधान उत्पन्न नहीं होता है। इसके विपरीत, यदि प्रापक वास्तविक अर्थ को समझ नहीं पाता है, जिसके चलते शब्दार्थ शोर उत्पन्न होता है। 

           शैशन-वीवर का गणितीय संचार प्रारूप में उल्लेख किया गया है कि -
  1.  सूचना स्रोत के पास एक संदेश होता है।
  2. सूचना प्रेषक की मदद से सूचना स्रोत संदेश को सम्प्रेषित करता है।
  3. सूचना प्रेषक संदेश को संकेत में परिवर्तित करता है। 
  4. परिवर्तित संकेत को संचार मार्ग से होकर गुजरना पड़ता है।
  5. संचार मार्ग में शोर के कारण व्यवधान उत्पन्न होता है, जिससे सम्प्रेषित संकेत प्रभावित होता है। 
  6. प्रापक संचार मार्ग में सम्प्रेषित संकेत को ग्रहण करता है।


          कमियां : शैशन और वीवर का गणितीय संचार प्रारूप मुख्यत: दो प्रश्नों पर आधारित है। पहला, संचार मार्ग में सम्प्रेषित सूचना को किस प्रकार उसके वास्तविक रूप में प्रापक तक पहुंचाया जाए तथा दूसरा, संचार मार्ग में शोर के कारण सूचना कितना विकृत होती है। इस प्रक्रिया में कहीं भी फीडबैक का उल्लेख नहीं किया है। इसी कमी के कारण शैशन और वीवर के गणितीय संचार प्रारूप की एक-तरफा कहा जाता है।  

नियामक सिद्धांत (Normative Theories)

Dr Awadhesh K. Yadav (Assistant Professor)     नवंबर 02, 2013    
       माज की अपनी सामाजिक व राजनैतिक व्यवस्था होती है। कुछ नियम व आदर्श होते हैं। इसी व्यवस्था के तहत नियम व आदर्श को ध्यान में रखकर संचार माध्यमों को अपना कार्य करना पड़ता है। संचार माध्यमों के प्रभाव से सामाजिक व राजनैतिक व्यवस्था न केवल प्रभावित, बल्कि परिवर्तित भी होती है। यहीं कारण है कि संचार विशेषज्ञ सदैव यह जानने के लिए प्रयासरत रहते है कि समाज का सामाजिक व राजनैतिक परिवरेश कैसा है? किसी देश व समाज के संचार माध्यमों को समझने के लिए उस देश व समाज की आर्थिक व राजनैतिक व्यवस्था, भौगोलिक परिस्थिति तथा जनसंख्या को जानना महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसके अभाव में संचार माध्यमों का विकास व विस्तार असंभव है। इस सम्बन्ध में संचार विशेषज्ञ  फ्रेडरिक सिबर्ट, थियोडोर पीटरसन तथा विलबर श्राम ने 1956 में प्रकाशित अपनी चर्चित पुस्तक Four Theories of the Press के अंतर्गत प्रेस के चार प्रमुख सिद्धांतों की विस्तृत व्याख्या की है, जिसे नियामक सिद्धांत कहा जाता है। जो निम्नलिखित हैं :-
  1. प्रभुत्ववादी सिद्धांत ((Authoritarian Theories)
  2. उदारवादी सिद्धांत (Libertarian Theories)
  3. सामाजिक उत्तरदायित्व का सिद्धांत (Social Responsibility Theories)
  4. साम्यवादी मीडिया सिद्धांत ( ( Communist Media Theories)
         इन चारों सिद्धांतों का प्रतिपादन प्रेस के संदर्भ में किया गया है। बाद में संचार विशेषज्ञों ने इसे मास मीडिया के संदर्भ में देखते हुए दो अन्य सिद्धांतों को प्रतिपादित करके जोड़ा है।
  1. लोकतांत्रिक भागीदारी का सिद्धांत (Democratic Participant Theories)
  2. विकास माध्यम सिद्धांत (Development Media Theories)
(नोट : हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के स्नातक प्रथम सेमेस्टर के पाठ्यक्रम कें साम्यवादी मीडिया सिद्धांत और विकास माध्यम सिद्धांत को सम्मलित नहीं किया गया है।)

प्रभुत्ववादी सिद्धांत
((Authoritarian Theories)

         प्राचीन काल के शासकों का अपने साम्राज्य पर पूर्ण नियंत्रण होता था। उसे सर्वशक्तिमान तथा ईश्वर का दूत माना जाता था। ग्रीक दार्शनिक प्लेटो ने अपने दार्शनिक राजा के सिद्धांत में शक्तिशाली राजा का उल्लेख किया है। प्रभुत्ववादी या निरंकुश शासन-व्यवस्था में व्यक्ति व समाज के पास कोई अधिकार नहीं होता है। उसके लिए शासक वर्ग की आज्ञा का पालन करना अनिवार्य होता है। ऐसी व्यवस्था में शासक को उसके कार्यों के लिए उत्तरदायी ठहराने के लिए विधि का अभाव होता है। मध्य युगीन इटली के दार्शनिक मेकियावली ने अपनी पुस्तक  The Prince में शासक को सत्ता के लिए सभी विकल्पों का प्रयोग करने का उल्लेख किया है। इसका तात्पर्य यह है कि शासक के शक्ति-प्रयोग व दुरूपयोग पर किसी प्रकार का परम्परागत या वैधानिक प्रतिबंध नहीं होता है। तत्कालीक शासक वर्ग की प्रेस से अपेक्षा होती थी कि वह यह प्रचारित करें कि ...शासक वर्ग सर्वोपरि है। ...उसके जुबान से निकला हर वाक्य कानून है। ...शासक वर्ग पर कोई अंगुली नहीं उठा सकता है। ...शासक वर्ग का काम शासितों की भलाई करना है, जिसे वे बखूबी तरीके से कर रहे हैं ...इत्यादि। 

       1440 में हालैण्ड के जॉनगुटेन वर्ग ने टाइप का आविष्कार किया। इसके बाद प्रिंटिंग प्रेस अस्तित्व में आया। उस दौरान दुनिया के अधिकांश देशों (राज्यों) में प्रभुत्ववादी या निरंकुश शासन-व्यवस्था प्रभावी थी, जिसके शासक वर्ग को सर्वशक्तिमान तथा सर्वगुण सम्पन्न समझा जाता था। अपने अस्तित्व को बनाये व बचाये रखने के लिए शासक वर्ग प्रेस की आजादी के पक्षधर नहीं थे। अत: प्रेस पर अपना नियंत्रण रखने के लिए निम्नलिखित नियमों को बना दिया :- 
  1. लाइसेंस प्रणाली : प्राचीन काल में शासक वर्ग ने प्रेस पर प्रभावी तरीके से नियंत्रण रखने के लिए प्रिंटिंग प्रेस लगाने के लिए लाइसेंस अनिवार्य कर दिया। शासक वर्ग को नजर अंदाज करने पर लाइसेंस रद्द करने की व्यवस्था थी। 
  2. सेंसरशिप कानून : लाइसेंस लेने के बावजूद प्रेस को कुछ भी प्रकाशित करने का अधिकार नहीं था। सेंसरशिप कानून के अनुपालन तथा सत्ता विरोधी सामग्री के प्रकाशन पर प्रतियों का प्रसारण रोकने का अधिकार शासक वर्ग के पास था। 
  3. सजा : शासक वर्ग की नीतियों के विरूद्ध कार्य करने पर जुर्माना व कारावास के सजा की व्यवस्था थी। 
         ब्रिटेन में प्रेस के लिए लाइसेंस लेने की व्यवस्था हेनरी अष्टम के कार्यकाल में प्रारंभ हुआ। धर्म प्रचार सामग्री प्रकाशित करने के लिए भी अनुबंध पत्र भरना तथा निर्धारित शुल्क भुगतान करना पड़ता था। 1663  में ब्रिटेन के एक मुद्रक जॉन ट्वीन ने एक पुस्तक प्रकाशित किया, जिसमें लिखा था कि- राजा को प्रजा के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए। वर्तमान लोकतांत्रिक शासन-व्यवस्था में यह सामान्य बात है, लेकिन प्रभुत्ववादी या निरंकुश शासन-व्यवस्था में राजद्रोह के समान थी। लिहाजा, जॉन ट्वीन को फांसी की सजा दी गयी। जबकि उक्त पुस्तक को जॉन  ट्वीन ने केवल प्रकाशित किया था, स्वयं लिखा नहीं था। राजद्रोह का नियम प्रेस को नियंत्रित करने का एक तरीका है। इसका सर्व प्रथम उपयोग 13वीं शताब्दी में शासक वर्ग के विरूद्ध समाज में अफवाह, षड्यंत्र तथा आलोचना रोकने के लिए किया गया। 

        1712 में ब्रिटिश संसद ने समाचार पत्रों पर अपना नियंत्रण व प्रभाव बढ़ाने के लिए स्टाम्प टैक्स लागू कर दिया, जिसमें सत्ता का विरोध करने वाले प्रेस के खिलाफ कठोर दण्डात्मक कार्रवाई करने का प्रावधान था। इसके अलावा समय-समय पर शासक वर्ग द्वारा कूूटनीतिक तरीके से भी प्रेस को अपने नियंत्रण में लेने का प्रयास किया जाता रहा है। जैसे- शासक वर्ग द्वारा अपना समाचार पत्र प्रकाशित करना, सत्ता पक्ष की चाटुकारिता करने वाले प्रेस को विशेष सुविधा देना इत्यादि। 20वीं सदी में हिटलर ने जर्मनी में निरंकुश सत्ता का बर्बरतम रूप प्रस्तुत करते हुए प्रेस पर कठोर प्रावधान लगाये। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान भारत में प्रेस को अंग्रेजों के कठोर काले कानूनों का शिकार होना पड़ा। 

उदारवादी सिद्धांत
(Libertarian Theories)

       यह सिद्धांत प्रभुत्ववादी सिद्धांत के विपरीत हैं। उदारवादी सिद्धांत की अवधारणा का बीजारोपण 16वीं शताब्दी में औद्योगिक क्रांति के साथ हुआ, जो 17वीं शताब्दी में अंकुरित तथा 18वीं शताब्दी में विकास हुई। इस सिद्धांत व विचारधारा को लोगों ने 19वीं शताब्दी में फूलते-फलते हुए देखा गया। लोकतंत्र के अभ्युदय, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सेंसरशिप मुक्त की स्थापना तथा सूचनाओं की  पारदर्शिता में उदारवादी सिद्धांत का विशेष योगदान है। इस सिद्धांत के अनुसार- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता  मानव जीवन का आधार तथा प्रेस को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रमुख हथियार है। सामान्य शब्दों में, उदारवादी सिद्धांत के अनुसार मानव के मन में अपने विचारों को किसी भी रूप में प्रकट करने, संगठित करने तथा जिस तरह से चाहे वैसे अभिव्यक्त (छपवाने) करने की स्वतंत्रता महसूस होनी चाहिए।

         फ्रांस की क्रांति तथा 19वीं सदी में विभिन्न नागरिक अधिकारों की अवधारणा से प्रेस की स्वतंत्रता की विचारधारा को मजबूती मिली। उदारवादी शासन व्यवस्था में नागरिकों को विभिन्न प्रकार की स्वतंत्रता प्रदान की गई थी। इसका सीधा प्रभाव प्रेस पर भी देखने को मिला। परिणामत: विभिन्न प्रकार के प्रतिबंधों व सेंसरशिपों से प्रेस को मुक्ति मिलने लगी। स्वतंत्र प्रेस की आवश्यकता के सम्बन्ध में प्रसिद्ध विचारक जॉन मिल्टन, थॉमस जेफरसेन, जॉन स्टुवर्ट मिल ने महत्वपूर्ण विचार व्यक्ति किये थे। इनके अनुसार लोकतंत्र के लिए उदारवादी सिद्धांत का होना अनिवार्य है। उदारवादी सिद्धांत के समर्थकों का मानना है कि मानव विवेकवान होता है। यदि सरकार प्रेस को स्वतंत्र छोड़ दे तो लोगों को विभिन्न तथ्यों की जानकारी उपलब्ध हो सकेगी। इस संदर्भ में जॉन मिल्टन ने  1644 में अपना विचार शासक वर्ग के समक्ष रखा तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का समर्थन करते हुए बगैर लाईसेंस के प्रेस स्थापित करने की सुविधा प्रदान करने की मांग की। अपनी पुस्तक 'एरियो पैजिटिका' में मिल्टन ने लिखा है कि मानव अपने विवेक एवं तर्क से सही-गलत तथा सत्य-असत्य का निर्णय कर सकता है। 

           उदारवादी सिद्धांत के संदर्भ में थॉमस जेफरसन का विचार है कि प्रेस का प्रमुख कार्य जनता को सूचित कर जागरूक बनाना है। शासक अपने कार्यों से विचलित न हो, इसके लिए प्रेस को जागरूक रहना चाहिए। थॉमस ने 1787 में अपने एक मित्र को लिखा कि- समाचार पत्र लोगों के विषय में सूचना व जानकारी को प्रसारित करते हैं। इससे जनभावना का निर्माण होता है। समाचार पत्र लोगों पर भावनात्मक प्रभाव भी उत्पन्न करते है। साथ ही थॉमस ने जॉच-पड़ताल के नाम पर लोगों को डराने-धमकाने वालों पर प्रतिबंध लगाने की मांग भी की। इस संदर्भ में दार्शनिक जॉन स्टुअर्ट मिल का विचार भी काफी महत्वपूर्ण हैं। मिल का विचार है कि मानव की मूूल प्रवृत्ति सोचने व कार्य करने तथा मूल उद्देश्य अधिकतम व्यक्तियों को अधिकतम सुख पहुंचाने की होनी चाहिए। 1859 में 'स्वतंत्रता' नामक अपने निबंध में जॉन स्टुअर्ट मिल ने लिखा है कि यदि हम किसी विचार पर शांत या मौन रखने को कहते हैं तो हम सत्य को शांत और मौन कर देते हैं। मिल के इस दर्शन का अमेरिकी जनता ने समर्थन किया।  

            इन विचारकों द्वारा प्रभुत्ववादी सिद्धांत पर सवाल उठाने पर सुधारवादियों ने कैथोलिक चर्च तथा राज्य सत्ता को चुनौती देना प्रारंभ कर दिया, जिसके चलते मानव के अधिकार व ज्ञान का विकास हुआ। इसका एक कारण यह भी है कि उदारवादी सिद्धांत के अंतर्गत मानव के विवेक एवं स्वतंत्रता को विशेष महत्व प्रदान किया गया है तथा मानव को अपने विचारों का मालिक बताया गया है। साथ ही उसे अपने विचारों, भावनाओं, मूल्यों को अभिव्यक्ति करने की स्वतंत्रता प्रदान की गयी है। इसी सिद्धांत व विचारधारा के कारण 19वीं शताब्दी में अमेरिका में लोकतंत्र की स्थापना हुई, जिसके अंतर्गत जनता के द्वारा, जनता के लिए सरकर का गठन हुआ। अमेरिकी संविधान में प्रेस की स्वतंत्रता को सम्मलित किया गया है। इससे प्रेस को सेंसरशिप से मुक्ति मिली। वर्तमान में अमेरिका, न्यूजीलैण्ड, कनाडा, स्वीडन, ब्रिटेन, डेनमार्क समेत दुनिया के कई देशों में उदारवादी सिद्धांत और लोकतांत्रिक व्यवस्था को लेकर अध्ययन चल रहे हैं। पिटर्सन एवं श्राम का कथन है कि- जनमाध्यमों को लचीला होना चाहिए। जनमाध्यमों में समाज में होने वाले परिवर्तनों को ग्रहण करने की क्षमता होनी चाहिए। इसके अलावा जनमाध्यम को व्यक्तिगत विचारों तथा सत्य का उन्मुक्त वातावरण बनाते हुए मानव के हितों को आगे बढ़ाना चाहिए। 

            इस प्रकार, उदारवादी विचारधारा के प्रतिपादकों ने लोकतंत्र को सही तरीके से चलाने के लिए हर तरह की सूूचना में पारदर्शिता लाने तथा लोगों को उपलब्ध कराने पर जोर दिया है। यही कारण है कि 20वीं शताब्दी के अंतिम तथा 21वीं शताब्दी के पहले दशक में दुनिया के अनेक देशों में सूचना का अधिकार कानूनी को प्रभावी तरीके से लागू किया गया। भारतीय संसद ने सूचना का अधिकार अधिनियम-2005 को पारित कर लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत जनता के अधिकारों में बढ़ोत्तरी की। हालांकि सबसे पहले 1776 में स्वीडन ने सूचना के अधिकार को लागू किया।

आलोचना : उदारवादी सिद्धांत के जहां समर्थकों की संख्या जहां काफी अधिक हैं, वहीं आलोचकों की भी कमी नहीं है। आलोचकों का मानना है कि मौजूदा समय में उदारवादी सिद्धांत की मूल तथ्यों को भले ही वाह्य रूप में लागू किया गया है किन्तु अंतर्वस्तु में नहीं... क्योंकि जनमाध्यमों को  प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष नियंत्रित या प्रभावित करने वाले सरकारी व गैर सरकारी दबाव हित समूह मौजूद हैं। समाचार स्रोत अपने ढंग से भी ऐसा करते हैं। इस सिद्धांत के संदर्भ में कई बार ऐसे विचार प्रकट किये जा चुके हैं कि यदि कोई स्वतंत्रता का दुरूपयोग करें तो क्या किया जाए? दुरूपयोग को रोकने के लिए सरकार उपर्युक्त प्रतिबंध लगा सकती है, लेकिन विचार अभिव्यक्त या प्रसारित करने से पहले सेंसरशिप नहीं लगाया जा सकता है। हालांकि बाद में उसे उचित कारणों के आधार पर कानून के कटघरे में खड़ा करके उचित दण्ड दिया जा सकता है। इसका अर्थ विचारों का दमन नहीं हो सकता है।  

सामाजिक उत्तरदायित्व सिद्धांत
 (Social Responsibility Theories)

             सामाजिक उत्तरदायित्व सिद्धांत का प्रतिपादन अमेरिका (1940) में स्वतंत्र एवं जिम्मेदार प्रेस के लिए गठित आयोग ने किया, जिसके अध्यक्ष कोलम्बिया विश्वविद्यालय के राबर्ट हटकिन्स थे। इस सिद्धांत को उदारवादी सिद्धांत की वैचारिक पृष्ठभूमि पर विकसित किया गया है। सामाजिक उत्तरदायित्व सिद्धांत के अनुसार- जनमाध्यम केवल समाज का दर्पण मात्र नहीं होता है, बल्कि इसके कुछ सामाजिक उत्तददायित्व भी होते हैं। इस संदर्भ में आर.डी. केस्मेयर ने आयोग के समक्ष कहा कि टेलीविजन न केवल समाज का, बल्कि जनता के संस्कारों एवं प्राथमिकताओं का भी दर्पण है। फ्रेंक स्टेन्फन का कथन है कि जन माध्यम समाज के दर्पण के रूप में कार्य करते हैं। किसी भी घटना को उसके वास्तविक रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं। साथ ही केस्मेयर व स्टेन्फन समेत तमाम मीडिया कर्मियों का स्वीकार करना पड़ा कि जनमाध्यमों का कार्य समाज में घटी घटनाओं को पेश करना मात्र ही नहीं है, बल्कि इनके कुछ सामाजिक उत्तरदायित्व भी हैं। जनमाध्यमों का प्रमुख उत्तरदायित्व यह है कि वे अपने कार्यक्रमों के माध्यम से समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने, शिक्षा का प्रसार करने, साम्प्रदायिक सद्भावना व राष्ट्रीय एकता को बनाये रखने तथा देश हित की रक्षा में मदद करें। जनमाध्यमों को केवल समाज की इच्छा से नियंत्रित नहीं होना चाहिए, बल्कि एक अच्छे पथ प्रदर्शक की तरह समाज हित में उचित निर्णय भी लेना चाहिए।

            अमेरिका में सामाजिक उत्तरदायित्व सिद्धांत का प्रतिपादन जनमाध्यम के विकास के बाद हुआ। 20वीं शताब्दी के चौथे दशक में अमेरिकी जनमाध्यमों में आपसी प्रतिस्पर्धा तथा व्यावसायिक हित के कारण समाचारों को सनसनीखेज तरीके से प्रस्तुत करने की होड़ लगी थी। इससे एक ओर जहां सामाजिक सरोकार प्रभावित हो रहे थे, वहीं उदारवादी सिद्धांत के आत्म नियंत्रण की अवधारणा समाप्त होने लगी थी। हटकिन्स आयोग ने जनमाध्यामें की इस प्रवृत्ति को लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए खतरनाक  बताते हुए सामाजिक उत्तरदायित्व सिद्धांत का प्रतिपादन किया। 
            
          हटकिन्स आयोग का मानना है कि प्रेस की स्वतंत्रता सामाजिक उत्तरदायित्व में निहित है। यह सिद्धांत वास्तव में उदारवादी सिद्धांत पर आधारित है तथा उसी की वैचारिक पृष्ठभूमि पर विकसित हुआ है। यह सिद्धांत एक ओर जनमाध्यमों की स्वायत्ता को स्वीकार करता है तो दूसरी ओर उसके सामाजिक उत्तरदायित्व को भी याद दिलाता है। अत: जनमाध्यमों की सामग्री सनसनीखेज नहीं बल्कि सामाजिक उत्तरदायित्व पर केंद्रीत व सत्य परख होनी चाहिए। इसके लिए आयोग ने एक नियमावली व्यवस्था लागू करने का सुझाव भी दिया है, जिसे प्रेस के क्रिया-कलाप को ध्यान में रखकर तैयार किया गया है। हटकिन्स आयोग ने कुछ सरकारी कानूनों का सुझाव दिया, जिसमें प्रेस के मुनाफाखोर या गैर-जिम्मेदार होने की स्थिति में स्वतंत्रता की संवैधानिक गारंटी होने के बावजूद प्रेस पर अंकुश लगाने का प्रावधान है। सामाजिक उत्तरदायित्व सिद्धांत की प्रमुख अवधारणाएं निम्नलिखित हैं :- 
  1. जनमाध्यमों को समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का स्वयं निर्धारण तथा पालन करना चाहिए।
  2. समाज की घटनाओं का सार्थक तरीके से संकलित करके सत्य, सम्पूर्ण व बुद्धिमत्तापूर्ण चित्र के साथ प्रस्तुत करना चाहिए। 
  3. सामाजिक उत्तरदायित्वों के निर्वहन के लिए जन माध्यामोंं को स्वयं स्थापित संस्थागत नियम व कानूनों के अंतर्गत निश्चित प्रक्रियाओं का पालन करना चाहिए।
  4. जनमाध्यमों को विचारों के आदान-प्रदान के साथ-साथ आलोचना का वास्तविक मंच भी बनना चाहिए।
  5. समाज में अपराध, हिंसा, क्लेश व अशांति उत्पन्न करने वाली सूचनाओं से जन माध्यमों को दूर रहना चाहिए।
  6. सामाजिक उद्देश्यों एवं मूल्यों की प्रस्तुति, स्पष्टीकरण तथा स्पष्ट समझ बनाने के लिए गंभीर होना चाहिए। 
  7. जन अभिरूचि के नैतिक मूल्यों के विकास की कोशिश करनी चाहिए।
  8. नये तथा बुद्धिमत्तापूर्ण विचारों को उचित स्थान तथा सम्मान देना चाहिए। 
विशेषताएं : सामाजिक उत्तरदायित्व सिद्धांत प्रेस को त्रुटि रहित तथा सामाजिक उत्तरदायित्व पूर्ण बनाता है। फिर भी इसकी प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं :-
  1. उदारवाद की अगली कड़ी है। 
  2. स्वतंत्र अभिव्यक्ति का पक्षधर है। 
  3. प्रेस पर नैतिक प्रतिबंध लगाता है। 
  4. स्वतंत्रता के साथ सामाजिक उत्तरदायित्व पर जोर देता है। 
  5. गैर-जिम्मेदार प्रेस पर अंकुश लगाने की जिम्मेदारी सरकार को सौंपता है।
लोकतांत्रिक सहभागी मीडिया सिद्धांत
(Democratic Participant Media Theories)
          यह विकासित देशों की मीडिया पर आधारित आधुनिक सिद्धांत है, जिसका प्रतिपादन जर्मनी के मैकवेल ने किया है। लोकतांत्रिक सहभागी मीडिया सिद्धांत के अंतर्गत मीडिया को औद्योगिक घरानों से मुक्त रखने तथा लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप जनता की सहभागिता सुनिश्चित करने पर जोर दिया गया है। इस सिद्धांत में स्वतंत्रतावाद, कल्पनावाद, समाजवाद, समतावाद, क्षेत्रवाद के साथ मानव अधिकार के तत्वों को सम्मलित किया गया है, जो शासन के अधिपत्य को चुनौती देता है। इस सिद्धांत की अवधारणा भले ही विकसित देशों की मीडिया पर आधारित है, लेकिन इसे विकासशील देशों की मीडिया पर भी लागू किया जाता है। लोकतांत्रिक सहभागी मीडिया सिद्धांत के अनुसार, देश-समाज हित के लिए संदेश व माध्यम काफी महत्वपूर्ण हैं। इन्हें किसी भी कीमत पर औद्योगिक घरानों के हाथों में सौंपा नहीं जाना चाहिए।  

          लोकतांत्रिक व्यवस्था में मीडिया के माध्यम से सम्प्रेषण का अधिकार समान रूप से सभी को उपलब्ध कराने के उद्देश्य से लोकतांत्रिक सहभागी मीडिया सिद्धांत का प्रतिपादन जर्मनी में किया गया। यह सिद्धांत पाठकों, दर्शकों व श्रोताओं को मात्र ग्रहणकर्ता होने के कथन को भी नकारता है। मैकवेल का मानना है कि मीडिया का स्वरूप लोकतांत्रिक व विकास प्रक्रिया में जनता की सहभागिता सुनिश्चित करने वाला होना चाहिए।  

         19वीं शताब्दी में लोक प्रसारण या सार्वजनिक प्रसारण की अवधारण के अंतर्गत समाज के आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक इत्यादि क्षेत्रों में लोकतांत्रिक प्रणाली के तहत उच्च स्तरीय सुधार की अपेक्षा की गई थी, जिसे सार्वजनिक प्रसारण संगठनों द्वारा पूरा नहीं किया गया। इसका मुख्य कारण शासन-प्रशासन से निकट सम्बन्ध, आर्थिक व व्यापारिक दबाव, अभिजातपूर्ण व्यवहार इत्यादि है। ऐसी स्थिति में आम जनता की आवाज को सामने लाने के लिए वैकल्पिक तथा जमीनी मीडिया स्थापित करने की आवश्यकता महसूस की गई। यह सिद्धांत स्थानीय महत्वपूर्ण सूचनाओं के अधिकार, जवाब देने के अधिकार की वकालत करने हेतु नये मीडिया के विकास की बात करता है। यह सिद्धांत मंहगे, बड़े तथा पेशेवर मीडिया संगठनों को नकारता है तथा मीडिया को राजकीय नियंत्रण से मुक्त होने की वकालत करता है। इस सिद्धांत के अनुसार मीडिया को पूंजीवादी नहीं होना चाहिए, क्योंकि इसका प्रभाव मीडिया की विषय वस्तु पर पड़ता है। प्रभावी संचार के लिए मीडिया का आकार छोटा, बहुआयामी तथा समाज के सभी वर्गो के बीच संदेश को भेजने व प्राप्त करने की दृष्टि से सर्वसुलभ व सस्ता होना चाहिए। इसके अंतर्गत स्थानीय व क्षेत्रीय मीडिया पर विशेष जोर दिया गया है, क्योंकि यह आम जनता की जरूरत और समझ को अधिक समझते हैं। उदाहरण- प्रिंट मीडिया में प्रमुख समाचार पत्र अपने राष्ट्रीय संस्करणों के साथ स्थानीय संस्करण भी प्रकाशित करते हैं। इसके लिए समाचारों का संकलन प्रदेश, जिला, तहसील व क्षेत्र वार करते हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया के कारण कैमरा स्टूडियों से निकल कर गली-मुहल्लों के चौराहों तक पहुंच गया है। 

विशेषताएं : लोकतांत्रिक सहभागी मीडिया सिद्धांत की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं :-
  1. जनसंचार का प्रमुख साधन है- मीडिया, जिसका संचालन अनुभवी व प्रशिक्षित व्यक्तियों के हाथों में होना चाहिए।
  2. प्रत्येक नागरिक को अपनी आवश्यकता के अनुरूप मीडिया का उपयोग करने का अधिकार होना चाहिए। 
  3.  मीडिया की अपेक्षाओं की पूर्ति न तो वैयक्तिक उपभोक्ताओं की मांग से पूरी होती है और न तो राज्यों से।
  4.  मीडिया की अंतर्वस्तु तथा संगठन सत्ता व राजनैतिक तंत्र के दबावों से मुक्त होना चाहिए। 
  5. छोटे व क्रियाशील मीडिया संगठन बड़े संगठनों की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण होते हैं।



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