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मंगलवार

लाइट (Light)

Dr Awadhesh K. Yadav (Assistant Professor)     नवंबर 05, 2024    

मानव जीवन में लाइट का विशेष महत्व है। इसके बगैर जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है। मानव की आंख तभी देख पाती हैं, जब लाइट परिवर्तित होकर उस पर पहुंचता है। विभिन्न रंगों के रूप में लाइट किसी भी वस्तु से टकराकर आंख की पुतली से होकर रेटिना तक पहुंचती है। फिर रेटिना से बनने वाली तस्वीर संदेश के रूप में हमारे मस्तिष्क में उतर जाती हैं। इसी तकनीक पर फोटोग्राफी के दौरान कैमरा भी काम करता है। मानव की आंख और कैमरा की तुलना करने पर पता चलता है कि किसी दृश्य को देखने हेतु कैमरा की तुलना में मानव की आंख अधिक सक्षम होती है। रंगों की बारिकीया पकड़ना हो या रात के समय कम प्रकाश में देखना हो, कैमरे की तुलना में मानव की आंख कई गुना अधिक कारगर होती है। इसलिए एक बात हमेशा याद रखनी होती है कि लाइटिंग कैमरे के लिए की जाती है, मानव के आंख के लिए नहीं।


सामान्यतः हम अपने जीवन में लाइटिंग से परिचत होते हैं। हम अपने-अपने घरों में लाइट का उपयोग करते हैं, लेकिन लाइटिंग के सौंदर्य बोध की तरफ हमारा ध्यान कम ही जाता है। हम अपने शयनकक्ष में नाइट लैम्प लगाते हैं, लेकिन इसके उद्देश्य पर गंभीरता से नहीं सोचते हैं। रेस्टोरेंट में लाइट की मात्रा कम क्यों होती है? इस पर भी हमारा ध्यान नहीं जाता है। दीवाली के पर्व पर हम अपने घरों में लाइटिंग के जरिये खुशियों का प्रदर्शन करते है।

फोटोग्राफी में लाइटिंग के तीन उद्देश्य होते हैं। पहला-विषय वस्तु को प्रकाशवान करना, क्योंकि जब तक विषय वस्तु पर समुचित प्रकाश नहीं होगा, तब तक कैमरे में उसकी अच्छी फोटोग्राफी नहीं की जा सकती है। लाइटिंग के माध्यम से फोटोग्राफ में यह बताने का प्रयास किया जाता है कि कौन सा समय चल रहा है। फोटोग्राफ को बारीकी से देखने पर पता चलता है कि लाइट की मात्रा, रंग और दिशा बदलती रहती है। जैसे- सुबह और शाम के समय लाइट का रंग हल्का नारंगी होता है। इस दौरान छाया भी लम्बी बनती है। तीसरा- लाइट के मदद से फोटोग्राफ में विशेष प्रकार का भाव स्थापित किया जाता है। उपरोक्त आधार पर कहा जा सकता है कि लाइट एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके द्वारा विभिन्न लाइट स्रोतों को नियंत्रित करके किसी खास उद्देश्य के लिए इसका उपयोग किया जाता है।

इस प्रकार फोटोग्राफी में लाइट का विशेष महत्व है, क्योंकि जो विषय वस्तु हमें दिखाई देते हैं, जिसके पीछे लाइट ही होता है। लाइट के अभाव में फोटोग्राफी की कल्पना नहीं की जा सकती है। विषय वस्तु पर पड़ने वाला प्रकाश ही परावर्तित होकर लैंस के रास्ते से कैमरे में कैद हो जाता है। लाइट की सही व्यवस्था न होने पर कैमरा विषय वस्तु को ठीक प्रकार से नहीं देख पाता है और दृश्य की गुणवत्ता में गिरावट आती है। इसके साथ ही लाइट शॉट की कम्पोजिशन में एक महत्वपूर्ण तत्व होता है। लाइट के माध्यम से यह निर्धारित किया जा सकता है कि दृश्य में उपलब्ध विभिन्न तत्वों को कितना स्पष्ट या अस्पष्ट रिकोर्ड करना है। फोटोग्राफी में लाइट का प्रयोग करने का मुख्य कारण विषय वस्तु को प्रकाशमान करना होता है। कई बार विषय वस्तु को कलात्मक तरीके से दिखाने के लिए भी लाइट का प्रयोग किया जाता है। लाइट से ही निर्धारित होता है कि फोटोग्राफ में विषय वस्तु कैसे दिखाई देंगे। फोटोग्राफी में प्रयोग होने वाली लाइट निम्न प्रकार की होती है:-

डायरेक्ट और इनडायरेक्ट लाइट  (Direct and Indirect Light)

फोटोग्राफी के दौरान लाइट की समझ इस बात पर निर्भर करती है कि लाइट का स्रोत क्या है? लाइट दो मुख्य की होती है। पहला- डायरेक्ट लाइट, और दूसरा- इनडायरेक्ट लाइट। विषय वस्तु पर सीधे पड़ने वाली लाइट को डायरेक्ट लाइट कहते हैं। यह इतनी तेज होती है कि उसके विपरीत दिशा में विषय वस्तु का प्रतिबिम्ब बन जाता है। लाइट जितनी तेज होती है, प्रतिबिम्ब भी उसी अनुपात में गहरा होता है। लाइट का मुख्य स्रोत सूर्य है। यदि सूर्य की किरणें सीधे विषय वस्तु पर पड़ती हैं तो उसे डायरेक्ट लाइट कहते हैं। इसके अलावा हाईलोजन से भी विषय वस्तु पर सीधी लाइट डाली जाती है तो उसे भी डायरेक्ट लाइट कहते हैं। ऐसी लाइट में विषय वस्तु की सपाट छवि बनती है, जिसमें बहुत कम गहराई होती है। कई बार गहराई का पता ही नहीं चलता है। नाटकीय छवि बनाने के लिए भी डायरेक्ट लाइट का प्रयोग किया जाता है। 

इसके विपरीत जब विषय वस्तु पर लाइट सीधा नहीं पड़ती है तो उसे इनडायरेक्ट लाइट कहा जाता है। फोटोग्राफी के लिए इनडायरेक्ट लाइट को अच्छा माना जाता है, क्योंकि इसमें विषय वस्तु का प्रतिबिम्ब नहीं बनता है। स्टूडियो में फोटोग्राफी के दौरान डायरेक्ट लाइट को विभिन्न उपकरणों की मदद से इनडायरेक्ट लाइट में परिवर्तीत किया जाता है।

हार्ड और साफ्ट लाइट  (Direct and Indirect Light)

फोटोग्राफी में प्रयोग होने वाली लाइटों को दो प्रकार से वर्गीकृत किया जाता है। एक वह लाइट जो किसी एक दिशा में प्रकाश डालती है तथा दूसरा वह लाइट जो चारों तरफ होती है यानी जिसकी कोई दिशा नहीं होती है। जो लाइट किसी एक दिशा में प्रकाश डालती है, उसकी रोशनी काफी तेज होती है, जिसके चलते विषय वस्तु की छाया गहरी बनती है। इस प्रकार की लाइट को हार्ड लाइट कहा जाता है। इसके विपरित जिस लाइट की कोई दिशा नहीं होती और चारों तरफ फैली होती हैं और उसमें विषय वस्तु की छाया कम बनाती है। ऐसी लाइट को सॉफ्ट लाइट कहा जाता है। इन लाइटों को कई और नामों से भी जाना जाता है। जैसे- हार्ड लाइट को डायरेक्शनल लाइट कहा जाता है, क्योंकि इस लाइट की एक दिशा होती है और यह उस दिशा के विषय वस्तु को प्रकाशमान करती है। इसी प्रकार, सॉफ्ट लाइट को डिफ्यूज्ड लाइट कहा जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि इनकी कोई एक दिशा नहीं होती है और यह अपने आस-पास के सभी विषयों को एक समान प्रकाशमान करती है।

हार्ड लाइट को फोकस लाइट भी कहा जाता है, क्योंकि यह किसी विषय विशेष को फोकस करके प्रयोग की जाती है। किसी विषय को प्रकाश देने के उद्देश्य से इस लाइट का प्रयोग किया जाता है। सॉफ्ट लाइट को फ्लड लाइट भी कहा जाता है, क्योंकि यह किसी विषय को ध्यान में रखकर प्रयोग नहीं की जाती है, बल्कि पूरे क्षेत्र को एक समान प्रकाशमान करती है। दैनिक जीवन में प्रयोग की जाने वाली लाइट का विश्लेषण किया जाए तो सामान्य तौर पर कमरों व गलियों में प्रयोग की जाने वाली लाइट फ्लड लाइट होती है। टॉर्च या गाड़ियों में प्रयोग होने वाली लाइट फोकस लाइट होती है। इस प्रकार वीडियो कार्यक्रमों में प्रयोग की जाने वाली लाइट अपनी प्रकृति के अनुसार या तो हार्ड लाइट होती है या फिर सॉफ्ट लाइट।

हालांकि फोटोग्राफी के लिए प्रयोग होने वाली कई लाइट ऐसी भी होती हैं, जिन्हें फ्लड लाइट के रूप में भी प्रयोग किया जा सकता है और फोकस लाइट के रूप में भी। इन लाइटों में यह सुविधा होती है कि उन्हें पूरे क्षेत्र को प्रकाशमान करने के लिए प्रयोग किया जा सकता है तथा आवश्यकता पड़ने पर किसी विषय विशेष पर केन्द्रित करके भी इस्तेमाल किया जा सकता है।

थ्री-प्वाइंट लाइटिंग (Three-Point Lighting)

यह फोटोग्राफी के दौरान सर्वाधिक उपयोग होने वाली लाइटिंग सेट-अप है, जिसमें विषय वस्तु पर तीन तरफ से लाइट डाला जाता है। इसीलिए इसे थ्री-प्वाइंट लाइटिंग या त्रिकोण लाइटिंग कहा जाता है। थ्री-प्वाइंट लाइटिंग में विषय वस्तु को हाईलाइट करने के लिए की-लाइट का उपयोग किया जाता है। इससे उत्पन्न छाया को समाप्त करने के लिए फिल लाइट जलाई जाती है। इसके बाद, विषय वस्तु को बैकग्राउण्ट से अलग करने के लिए बैक लाइट का प्रयोग किया जाता है। इन लाइटों को त्रिकोण में उपयोग किया जाता है। विषय वस्तु के सामने क्रमशः की-लाइट और फिल लाइट का उपयोग किया जाता है, जबकि पीछे से बैकग्राउण्ट लाइट का इस्तेमाल किया जाता है। इस लाइटिंग सेट-अप से विषय वस्तु स्पष्ट रूप से उभरा हुआ दिखाई देता है। ज्यादातर फोटोग्राफी में इसी लाइटिंग तकनीकी का उपयोग किया जाता है। व्यवसायिक फोटोग्राफी में भी थ्री प्वाइंट लाइटिंग को महत्व दिया जाता है। थ्री प्वाइंट लाइटिंग को समझने के लिए क्रमशः की-लाइट, फिल लाइट और बैकग्राउण्ट लाइट को जानना जरूरी है।

  • की-लाइट: यह लाइट व्यवस्था की सबसे महत्वपूर्ण लाइट होती है। इस लाइट से ही विषय वस्तु को प्रकाशमान किया जाता है। फोटोग्राफी के दौरान कैमरे में कैद किये जाने वाले दृश्य पर इसी लाइट से प्रकाश डाला जाता है। कहने का तात्पर्य है कि फोटोग्राफी के लिए प्रकाश की व्यवस्था की-लाइट से की जाती है। ज्यादातर हार्ड लाइट को ही की-लाइट के रूप में प्रयोग किया जाता है। इस लाइट की तीव्रता काफी तेज होती है, जिसके चलते विषय वस्तु की परछाई उत्पन्न होती है। सामान्यतः इसे विषय वस्तु के सामने 45 डिग्री पर लगाया जाता है।
  • फिल लाइट: इस लाइट को की-लाइट से उत्पन्न होने वाली परछाई को समाप्त करने के लिए प्रयोग किया जाता है। फिल लाइट को की-लाइट के समानांतर कैमरे के दूसरी ओर लगाया जाता है। अर्थात यह लाइट का उपयोग विषय वस्तु की परछाई के विपरीत दिशा में किया जाता है, जिससे विषय वस्तु की छाया समाप्त हो जाती है। फिल लाइट के लिए ज्यादातर साफ्ट लाइट का प्रयोग किया जाता है। जब की-लाइट को विषय वस्तु पर डाला जाता है, तब उसके विपरीत दिशा में अंधेरा छा जाता है। इसे तकनीकी भाषा में फालऑफ कहते हैं। जितनी अधिक क्षमता की की-लाइट का उपयोग किया जाता है, उतना ही फालऑफ अधिक बनता है। इसे समाप्त करने के लिए फिल लाइट का उपयोग किया जाता है।
  • बैकग्राउण्ड लाइट: इस लाइट को विषय वस्तु के पीछे का दृश्य दिखाने के लिए किया जाता है। जिस विषय वस्तु के पीछे सेट लगा होता है, फोटोग्राफी के दौरान सेट को दिखाने के लिए बैकग्राउण्ड लाइट का इस्तेमाल किया जाता है। इसे बैक लाइट के विपरीत दिशा से सेट पर डाला जाता है। इस लाइट को उसी दृश्यों में प्रयोग किया जाता है जिसमें बैकग्राउण्ड दिखाना होता है। 

रविवार

कैमरा के प्रकार (Types of Camera)

Dr Awadhesh K. Yadav (Assistant Professor)     अक्टूबर 20, 2024    

 कैमरा (Camera) फोटोग्राफी के दौरान उपयोग किये जाने वाला एक उपकरण है। फोटोग्राफी के लिए पीनहोल कैमरा, व्यू कैमरा, काम्पैक्ट कैमरा, टविन लैन्स रिफ्लैक्स कैमरा, सिंगल लैन्स रिफ्लैक्स कैमरा, इन्सटैंट कैमरा, डिजिटल कैमरा का उपयोग किया जाता है।  

  1. पिनहोल कैमरा (Pinhole Camera) : पिनहोल कैमरा एक साधारण कैमरा होता है, जिसमें लैंस नहीं लगा होता है। यह एक छोटे से एपर्चर (तथाकथित पिनहोल) की मदद फोटोग्राफी का कार्य करता है। अन्य शब्दों में कहें तो यह एक छोटे से छिद्र वाला लाइट-प्रूफ बॉक्स होता है, जिसमें दृश्य से प्रकाश एपर्चर के माध्यम से गुजरता है और बॉक्स की दूसरी दिशा में उल्टी छवि का निर्माण करता है। बाद में इसमें एक लैंस का उपयोग किया जाने लगा।

  2. व्यू कैमरा (View Camera: यह कैमरे बड़े आकार का होता हैं, जिसे स्टैण्ड पर लगाकर फोटोग्राफी का कार्य किया जाता है। व्यू कैमरा में व्यूफाइंडर नहीं होता है। फिल्म की स्थान पर एक व्यूफाइंडर स्कीन लगी होती है, जिसमें विषय-वस्तु या दृश्य को देखकर फोटोग्राफी की जा सकती है। इस कैमरे के व्यूफाइंडर में सीधे खड़े व्यक्ति का दृश्य उल्टा दिखाई देता है अर्थात सिर नीचे और पाँव ऊपर होता। ऐसे कैमरों को आगे और पीछे दोनों भागों में अलग-अलग संतुलित किया जाता है। व्यू कैमरा का सबसे बड़ा दोष यह है कि इसमें न तो बहुत नजदीक (Extreme Closeup) की फोटोग्राफी की जा सकती है और न तो इनमें क्षेत्रीय-गहनता (Depth of Field) का ही सही अनुमान लगाया जा सकता है।
  3. कॉम्पैक्ट कैमरा (Compact camera) : यह छोटे आकार का कैमरा होता है, जिसमें लैन्स बदले की सुविधा नहीं होती है। हालांकि कॉम्पैक्ट कैमरा में अच्छी किस्म का लैन्स लगा होता है। बाजार में ऐसे कॉम्पैक्ट कैमरा भी उपलब्ध है, जिनमें जूम लैन्स पहले से ही लगा होता है। इनकी क्षेत्रीय-गहनता (Depth of Field) तीन फीट से अन्तत तक होती है। इनमें अच्छी फोटोग्राफी की क्षमता होती है। बाजार में ऐसे कॉम्पैक्ट कैमरा भी उपलब्ध हैं, जिनमें एक्सपोजर को नियन्त्रित करने के लिए स्वः चालित प्रणाली लगी होती है। कुछ ऐसे मॉडल भी आ गये हैं, जिनमें पहले से लगी फ्लैश की सुविधा होती है। इसके अलावा फोटोग्राफ पर दिन और वर्ष मुद्रित करने की सुविधा भी होती है। कॉम्पैक्ट कैमरा उन व्यक्तियों के लिए उपयोगी है, जिन्हें कभी-कभार फोटोग्राफी करनी होती है। ऐसे कैमरे से फोटो खींचना बहुत आसान होता है। विषय वस्तु को व्यू फाइंडर में से देखते हुए बटन दबा कर फोटो खींची जा सकती है। एपरचर या शटर की गति को बदलने की आवश्यकता नहीं होती है। कॉम्पैक्ट कैमरों में फोटोग्राफी के दौरान उपभोक्ताओं को कुछ असुविधाओं का सामना भी करना पड़ता हैं। जैसे- इन कैमरों में अलग से फिल्टर, लैन्स, फ्लैश आदि लगाने की सुविधा नहीं होती है। इनसे खींचे गए फोटोग्राफ भी उतने शार्प नहीं होते, जितने कि किसी SLR कैमरा के होते हैं, क्योंकि कॉम्पैक्ट कैमरे का रैजोलूशन काफी कम होता है। कॉम्पैक्ट कैमरे का प्रयोग करके अच्छी फोटोग्राफी नहीं सीखी जा सकती, क्योंकि इसमें एपरचर, प्रकाश मीटर व शटर की गति का आवश्यकतानुसार अभ्यास करने की सुविधा नहीं होती है। पहले से लगे लैंस, फ्लैश आदि की एक निश्चित सीमा होती है। इनमें सीमित एपरचर की सुविधा के कारण तेज गति की फिल्म का प्रयोग किया जाता है। 
  4. टविन लैन्स रिफ्लैक्स कैमरा (TLR- Twin Lens Reflex Cameraa) : TLR कैमरा में दो लैन्स होते हैं, जिनकी फोकल लैन्थ एक समान होती है। दोनों लैन्स एक-दूसरे के ऊपर लगे होते हैं। इनकी धूरी समतल और एक-दूसरे के समानान्तर होती है। ऊपर वाले लैन्स का प्रयोग विषय वस्तु या दृश्य को देखते हुए कम्पोज करने के लिए किया जाता है, जबकि नीचे वाले लैन्स का प्रयोग फिल्म पर वास्तविक प्रतिबिम्ब बनाने के लिए किया जाता है। SLR कैमरे की तरह TLR कैमरे में भी ऊपर वाले लैन्स के माध्यम में खुले एपरचर के कारण प्रतिबिम्ब धुंधले शीशे की समतल स्क्रीन पर बनता है। यद्यपि टविन लैन्स रिफ्लैक्स कैमरा में 120 या 220 आकार की फिल्मों का प्रयोग किया जाता है, इनमें ऐसा प्रावधान भी किया जाता है कि 35 मि.मी. आकार की फिल्म प्रयोग की जा सके। अधिकतर टविन लैन्स रिफ्लैक्स कैमरों में लैन्स नहीं बदले जा सकते, परन्तु कुछ निर्माताओं ने ऐसे टविन लैन्स रिफ्लैक्स कैमरे बनाए हैं, जिनमें लैन्स बदले जा सकते हैं। रोलिफ्लैक्स, मैमिया और हैसलब्लैंड प्रसिद्ध टविन लैन्स रिफ्लैक्स कैमरे हैं।
  5. सिंगल लैन्स रिफ्लैक्स कैमरा (SLR- Single Lens Reflex Camera) : अपने छोटे आकार और अन्य गुणों के कारण सिंगल लैन्स रिफ्लैक्स (SLR) कैमरा बहुत ही लोकप्रिय है। इस कैमरे की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसके व्यू फाइंडर में हम  जैसा प्रतिबिम्ब देखते हैं, वैसा ही फोटोग्राफी खींचता है। SLR कैमरों में विषय वस्तु को देखने और फोटो को खींचने के लिए एक ही लैन्स का प्रयोग किया जाता है। यही कारण है कि इस कैमरे से हम उपयुक्त कम्पोजिशन बना सकते हैं और फोटो खींचते समय फोकस को शार्प करते हुए Depth of Field भी देख सकते हैं। लैन्स के पीछे लगा दर्पण (Plane Mirror) धुंधले शीशे की स्क्रीन पर प्रतिबिम्ब बनाता है और शटर का बटन दबाते ही शीशा ऊपर की ओर उठ जाता है। इस प्रकार, प्रकाश की किरणें फिल्म पर पड़ती हैं और दृश्य अंकित हो जाता है। आमतौर पर ऐसे कैमरों में यह दर्पण तब अपनी वास्तविक स्थिति में लौटकर आता है, जब फिल्म अगले फोटो के लिए आगे घूम जाती है, परन्तु मंहगे SLR कैमरों में ऐसा नहीं हैं। उनमें दर्पण ऊपर उठने के तुरन्त बाद अपनी वास्तविक स्थिति में लौट आता है। इन कैमरों में फोकल प्लेन शटर का प्रयोग किया जाता है। SLR कैमरे की एक मुख्य विशेषता यह है कि इसके लैन्सों को बदलने की सुविधा होती है। 
  6. पोलेराइड कैमरा (Polaroid Camera) : पोलेराइड कैमरों को इन्सटैंट कैमरा भी कहा जाता हैं क्योंकि इनके द्वारा खींचे गए फोटोग्राफ के प्रिंट्स को कुछ ही देर में प्राप्त किया जा सकता है। डार्करूम में जाकर फिल्म डेवलेप कर नेगेटिव बनाने और फोटोग्राफ प्रिंट बनाने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। पोलेराइड कैमरे का आविष्कार सन् 1947 में संयुक्त राज्य अमेरिका के डा. एडविन लैंड (Dr- Edwin Land) ने किया था। ऐसे कैमरे से ब्लैक एंड व्हाइट और रंगीन दोनों प्रकार के फोटोग्राफ खींचे जा सकते हैं। इनमें फ्लैश का प्रयोग किया जा सकता है। इनके द्वारा खींचे गए फोटोग्राफ गुणवत्ता की दृष्टि से परपरागत कैमरों के खींचे गये फोटोग्राफ की तरह नहीं होते हैं। फिर भी, इनसे जो फोटो खींचे जाते हैं वे स्पष्ट होते हैं। यह कैमरा कम समय में फोटोग्राफ खींचने के लिए अच्छा माना जाता है। पोलेराइड कैमरों में मिनिएचर लैब होता है, जो तुरंत फोटोग्राफ उपलब्ध कराता है।
  7. डिजिटल कैमरा (Digital Camera: डिजिटल कैमरे कंप्यूटर-क्रांति की देन हैं। फोटोग्राफी विधा में इन कैमरों के आगमन से हलचल मच गई है। फोटो पत्रकारिता के लिए डिजिटल कैमरे उपयुक्त होता है। इनमें न तो फिल्म लगाने की आवश्यकता होती है और न ही उसे डेवलप कराने की। क्लिक करने ही सामने का दृष्य कैमरे की मेमोरी में सेव हो जाता है, फिर उसे कंप्यूटर में डाउनलोड किया जा सकता है। मन चाहे दृश्य को ही कैमरे की मेमोरी में रखने और अनचाहे दृश्य को डीलीट (Delete) करने की सुविधा होती है। इसके प्रिंट की क्वालिटी भी आकर्षक होती है। डिजिटल कैमरों में दृश्य देखने के लिए व्यूफाइंडर के अलावा स्क्रीन भी लगा होती है। दृश्य को कंपोजिशन करने और अनावश्यक चीजों को निकालने की सुविधा उपलब्ध भी होती है। यह कैमरा काफी कीमती और रख-रखाव की दृष्टि सेे नाजुक होता है। इनमें कुछ ऐसे कैमरे होते हैं जिनमें फिल्म के स्थान पर फ्लापी लगाई जा सकती है। एक फ्लापी को भर जाने के बाद बदला भी जा सकता है। फ्लापी को कंप्यूटर में डाउनलोड करके प्रिंट आउट लिया जा सकता है। 

वर्तमान समय में सस्ते डिजिटल कैमरें भी बाजार में उपलब्ध हैं। इन कैमरों में लो (Low) लाइट में भी शॉट लेने की अद्भुत क्षमता होती है। लाइट के प्रति ये अत्यंत संवेदनशील होते हैं। जिस लाइट में SLR कैमरों से शॉट लेना संभव नहीं है, उसी लाइट में भी डिजिटल कैमरों से फोटोग्राफी की जा सकती है। लेकिन इनकी भी अपनी सीमाएं हैं। 

डिजिटल और परम्परागत फोटोग्राफी में अंतर

सुभाष सप्रू ने अपनी पुस्तक ‘फोटो पत्रकारिता’ में डिजिटल और पारंपरिक फोटोग्राफी के महत्त्व को निम्न प्रकार दर्शाया है-

  1. डिजिटल कैमरों में सी.डी. (Compact disk) पर प्रतिबिम्ब इलैक्ट्रॉनिक संकेतों से बनता है, जबकि पारंपरिक कैमरों में फिल्म पर लगे घोल (Emulsion) पर प्रकाश पड़ने पर रासायनिक प्रक्रिया होती है। 
  2. डिजिटल फोटोग्राफी में फोटो खींचने के उपरांत प्रतिबिम्ब को दर्ज करने तथा उसे स्टोर करने के लिए अलग-अलग स्थान होता है, जबकि पारंपरिक फोटोग्राफी में फिल्म एक्सपोज करने के बाद प्रतिबिम्ब को उसी स्थान पर स्टोर किया जा सकता है।
  3. डिजिटल कैमरों में प्रिंट बनाने से पहले नेगेटिव बनाने की आवश्यकता नहीं पड़ती, जबकि पारंपरिक कैमरों में प्रिंट बनाने के लिए नेगेटिव बनाना आवश्यक है।
  4. डिजिटल कैमरों में प्रिंट बनाने के लिए न ही रसायनों की आवश्यकता होती है और न ही डार्करूम की। जबकि पारंपरिक कैमरों में इसकी आवश्यकता अहम् होती है।
  5. डिजिटल फोटोग्राफी में रसायनों का प्रयोग न होने के कारण पर्यावरण के प्रदूषण की संभावना नहीं रहती जबकि पारंपरिक फोटोग्राफी में रसायनों का प्रयोग होने के कारण पर्यावरण प्रदूषित होता है।
  6. डिजिटल फोटोग्राफी में मैमोरी स्टिक या फ्लापी को कंप्यूटर में डालकर किसी फोटो इमेजिंग साफ्टवेयर की सहायता से फोटो में तब्दील करके उसका प्रिंट निकाला जा सकता है, जबकि पारंपरिक फोटोग्राफी में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। 
  7. डिजिटल कैमरों से कम प्रकाश में भी फ्लैश का प्रयोग किए बिना फोटो खींच सकते हैं, जबकि पारंपरिक कैमरों से कम प्रकाश में फोटो खींचना काफी कठीन कार्य है।
  8. डिजिटल कैमरो से खींचा गया फोटो यदि अच्छा न लगे तो उसे उसी समय मिटाकर उसके स्थान पर दोबारा खींच सकते हैं। जबकि पारंपरिक फोटोग्राफी में दोबारा फोटो खींचने के लिए नया नेगेटिव बनाना पड़ता है।


सोमवार

कैमरा के तत्व (Elements of Camera)

Dr Awadhesh K. Yadav (Assistant Professor)     अक्टूबर 07, 2024    

जिस प्रकार एक ड्राईवर के लिए अपने कल-पुर्जो की जानकारी होना आवश्यक है, ठीक उसी प्रकार फोटो पत्रकार के लिए भी अपने कैमरे के सभी जानकारी होना जरूरी है। पत्रकारिता के मौजूदा समय में फोटोग्राफी का विशेष महत्व है, क्योंकि वर्तमान भागदौड़ भरी जिंदगी में बहुत से लोगों को समाचार पत्रों में प्रकाशित फोटोग्राफ से घटना-दुर्घटना की भयावहता की जानकारी मिलती है। मौजूदा बाजार में सैकड़ों कम्पनियों के सस्ते-मंहगे कैमरा मौजूद है। सभी कैमरों में निम्नलिखित तत्व मिलते हैं:-

  1. व्यू फाइंडर (View finder)
  2. लेंस (Lens)
  3. आईरिस/परितारिका (Iris)
  4. शटर (Shutter)
  5. फिल्म चैम्बर (Film Chamber) और
  6. लाइट मीटर (Light Meter)

1. व्यू फाइंडर (View finder) : किसी भी कैमरे में फोटोग्राफी से पहले व्यूू फाइंडर की मदद से दृश्य को देखा जाता है। इससे यह आभास हो जाता है कि दृश्य का क्षेत्र कितना है। व्यू फाइंडर प्रत्येक कैमरे में लगा होता है। कैमरा ओबस्क्योरा के आविष्कार के बाद व्यू फाइंडर के बारे में कई आवष्किार किये गये। विभिन्न प्रकार के कैमरे में अलग-अलग प्रकार के व्यू फाइंडर लगे होते हैं। कुछ बाक्स कैमरे में सीधे आंख के स्तर के व्यू फाइंडर लगे होते हैं। टविन लैंस और सिंगल लैंस कैमरा में धुंधले शीशे और दर्पण वाले व्यू फाइंडर होते हैं। सिंगल लेंस रिफ्लैक्स कैमरा में प्रिज्म, धुंधले और दर्पण व्यू फाइंडर होते हैं।

2. लैन्स (Lens) : यह कैमरे का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है। कैमरे से फोटोग्राफी के दौरान हमारी सबसे पहले विषय वस्तु को देखना होता है, जो कैमरे में लगे लैन्स के द्वारा ही संभव है। इसलिए लैंस कैमरे का सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा होता है। लैन्स प्रायः शीशे का बना एक पारदर्शी माध्यम है, जो दोनों तरफ से वक्राकार होता है और प्रकाश की किरणों को परिवर्तित करता है। इसका प्रयोग न केवल कैमरे में बल्कि एंलार्जर और प्रोजैक्टर में भी किया जाता है। इसी पर विषय-वस्तु के बिम्ब का सही होना, न होना निर्भर करता है। लैन्स की वक्रता गोलाकार, बेलनाकार या अनुवृत्ताकार होती है, परंतु फोटोग्राफी में प्रयोग किया जाने वाला लैंस एक तरफ से अवश्य गोलाकार होता है। लैंस मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं-उत्तल और अवतल।

3. आईरिस/परितारिका (Iris) : आईरिस (परितारिका) एक अंगूठीनुमा उपकरण है, जो कैमरे के लेंस के बाहर लगा होता है। इसका उपयोग एपर्चर को स्वतः समायोजित करने के लिए किया जाता है। आईरिस कैमरे के एफ-स्टॉप को संख्या में मापता है, जिससे पता चलता है कि कैमरे का एपर्चर कितना प्रकाश देता है। फोटोग्राफी के दौरान प्रकाश की मात्रा बढ़ाने के लिए एपर्चर को चौड़ा करने की जरूरत होती है। इसके लिए आईरिस को कम एफ-स्टॉप सेटिंग पर सेट किया जाता है। इसी प्रकार, प्रकाश की मात्रा को कम करने के लिए कैमरे के एपर्चर को कम करने की जरूरत होती है। इसके लिए आईरिस को एक उच्च एफ-स्टॉप नंबर पर सेट करना पड़ता हैं।

4. शटर (Shutter) : कैमरे का चौथा मुख्य भाग शटर है। शटर एक दरवाजा की तरह होता है, जो लैन्स और फिल्म के बीच कार्य करता है। यह फिल्म पर पड़ने वाले प्रकाश को नियंत्रित करता है। शटर के माध्यम से प्रकाश तभी कैमरे के अंदर जाता है, जब बटन दबाकर शटर को खोला जाता है। शटर को ऐसे बनाया जाता है कि यह कैमरा प्रयोग करने वाले की इच्छा के अनुरूप उतने समय तक प्रकाश को आने दे, जितनी देर तक वह चाहता है। परंतु साधारण कैमरे में शटर की समय सीमा पूर्व निर्धारित होती है। इसे परिवर्तित नहीं किया जा सकता है।

5. फिल्म चैम्बर (Film Chamber) : यह कैमरे का पांचवां महत्वपूर्ण भाग है। कैमरे में फिल्म चैम्बर के मुख्यतः दो भाग होते हैं। पहले भाग में खाली फिल्म लगी है। फोटोग्राफी के बाद वह दूसरे भाग में लिपट जाती है। प्रांरभिक कैमरों में फोटोग्राफी के बाद फिल्म को मैनुअल तरीके से आगे बढ़ाया जाता था। बाद में, ऑटोमैटिक तरीके से फोटोग्राफी के बाद फिल्म चैम्बर के दूसरे भाग में स्वतः जाने लगा। डिजिटल कैमरों में फिल्म चैम्बर नहीं होता है। इसके स्थान पर एसडी या मेमोरी कार्ड लगाने की व्यवस्था होती है।

6. लाइट मीटर (Light Meter) : यह एक यांत्रिक उपकरण है, जिसका उपयोग कैमरे की लाइट को मापने के लिए किया जाता है। लाइट मीटर का उपयोग फोटोग्राफी के दौरान फिल्म पर पड़ने वाले प्रकाश की गति को मापने के लिए किया जाता है। कैमरे में डिजिटल तथा एनलॉग किस्म के लाइट मीटर लगे होते हैं, जो एक निश्चित प्रकाश व्यवस्था में कार्य करता है।



कैमरा (Carema)

Dr Awadhesh K. Yadav (Assistant Professor)     अक्टूबर 07, 2024    

प्रकाश के माध्यम से वास्तविक चित्र बनाने का मुख्य साधन है- कैमरा। इसकी कल्पना 14वीं शताब्दी में तब की गई, जब एक व्यक्ति ने अंधेरे कमरे में वाह्य दृश्य का विलोम (उल्टा) प्रतिबिम्ब देखा। यह प्रतिबिम्ब दरवाजे में बने एक छोटे से छिद्र से गुजरते प्रकाश के कारण बन रहा था। यहीं से प्रारंभ हुई कैमरे के विकास की कहानी। इस प्रविधि का कैमरा आब्स्क्यूरा (Camera Obscura) के निर्माण में किया गया। कैमरा (Camera) यूनानी शब्द (Kameraa) से बना है, जो कैमरा आब्स्क्यूरा (Camera Obscura) का संक्षिप्त नाम है। लैटिन भाषा में कैमरा आब्स्क्यूरा (Camera Obscura) का शब्द का शाब्दिक अर्थ अंधेरा कमरा होता है।

प्रारंभ में कैमरा का कुछ कलाकारों द्वारा सफेद कागज पर बन रहे चित्र को पैंसिल या रंगों की सहायता से बनाने के लिए उपयोग किया। बाद में जोसफ नाइसफोर नाइप्स ने सफेद कागज पर बन रहे चित्र के आगे रसायनों से युक्त एक शीट रख दिया, जिस पर चित्र का फोटोग्राफ स्थाई तौर पर अंकित हो गया। इस प्रकार स्पष्ट हुआ कि कैमरा फोटोग्राफी का महत्त्वपूर्ण उपकरण है।

1569 में  इटली के डेलापार्ट नामक व्यक्ति ने बाहर के बिम्ब को साफ और सूक्ष्म बनाने के लिए दरवाजे के छिद्र में एक लैंस लगाया। 1686 में जोहान जॉन ने एक ऐसे यंत्र का निर्माण किया जिसमें एक लैंस और एक दर्पण लगा हुआ था। इसमें बिना बिम्ब के सीधा दिखाई देता था। इसी सिद्धांत पर आधुनिक सिंगल लैंस रिफलैक्स कैमरा बना।

वर्तमान समय में अनेक प्रकार के कैमरे उपलब्ध हैं, जैसे- सिंगल लैन्स रिफ्लैक्स (SLR), टविन लैन्स रिफ्लैक्स (TLR) या इन्सटैंट कैमरा (Instant Carema), कैमरा (compact camera) इत्यादि, जिसके चलते लोग अक्सर पूछते हैं कि इनमें से कौन स कैमरा अच्छा है। आधुनिक ऑटो फोकस कैमरा (Auto Focus Camera) आने के बाद पूछा जाने लगा है कि मैन्यूअल (Manual) कैमरा सही है या फिर आधुनिक ऑटो फोकस कैमरा। वास्तव में, प्रत्येक कैमरे के अंदर यदि कुछ गुण है तो कुछ अवगुण भी हैं। प्रत्येक कैमरे में एक सिरे पर लैन्स और दूसरे पर प्रकाश ग्रहणशील फिल्म लगाने की व्यवस्था होती है। कैमरे को या तो धातु या फिर किसी सिन्थैटिक (Synthetic) पदार्थ से सांचे में ढाल कर बनाया जाता है। इसका आकार देते समय इस बात पर विशेष ध्यान रखा जाता है कि फोटोग्राफी के दौरान कैमरा पकड़ने में सुविधा जनक हो। 

सामान्यतः कैमरा में दो कक्ष होते हैं, एक में फिल्म डाली जाती है जो फोटो खींचते समय दूसरे कक्ष में लिपटती जाती है, परन्तु दोनों कक्षों के बीच प्रकाश से प्रतिबिम्ब बनने की जगह होती है। इस फिल्म के पीछे एक प्लेट लगी होती है, जिसे कैमरा में फिल्म डालने के बाद बंद कर दिया जाता है। इससे फिल्म सीधी रहती है। कैमरे में ऐसा प्रावधान होता है कि चित्र खींचने के बाद जब फिल्म आगे की जाती है तो फिल्म में चित्र का नम्बर नजर आता है। आधुनिक कैमरों में हर चित्र खींचने के बाद फिल्म स्वयं आगे चलती रहती है और फ्रेम का नम्बर बदलता रहता है। कुछ कैमरों में कम रोशनी में फोटो खींचने के लिए फ्लैश पहले से ही लगा होता है। आधुनिक कैमरों में कुछ ऐसे कैमरे भी हैं, जिनमें ‘फिल-इन-फ्लैश’ का प्रावधान होता है। इसके अतिरिक्त भी फ्लैश लगाने की सुविधा होती है। डिजिटल कैमरे में फिल्म लगाने की न तो जगह होती है और न तो जरूरत। इसमें फिल्म के स्थान पर एसडी कार्ड या मेमोरी कार्ड का उपयोग किया जाता है, जिसका बार-बार उपयोग किया जा सकता है।

गुरुवार

समाचार पत्र का फोटो प्रभाग (The News Paper Photo Section)

Dr Awadhesh K. Yadav (Assistant Professor)     सितंबर 19, 2024    

फोटोग्राफी के आविष्कार के बाद समाचार पत्रों में फोटो के बढ़ते प्रयोग के कारण समाचार पत्रों को व्यापक परिवर्तन करना पड़ा। कई समाचार पत्रों ने स्थानीय फोटो स्टूडिया से सम्पर्क कर अपने लिए फोटोग्राफ खींचने की जिम्मेदारी सौंप दी। कुछ ने अपने रिपोर्टरों को ही कैमरा पकड़ा दिया, तो कुछ ने प्रशिक्षित फोटोग्राफरों की विधिवत नियुक्ति भी की। वर्तमान समय में मोबाइल फोन के अंदर कैमरा उपलब्ध होने के कारण रिपोर्टर और फोटोग्राफर दोनों फोटोग्राफी का कार्य कर रहे हैं। इस प्रकार, अधिकांश समाचार पत्रों में समाचार विभाग के समानांतर फोटो प्रभाग कार्य करने लगा है।

समाचार पत्रों के फोटो प्रभाग में फोटोग्राफ के रिकार्ड रखे जाते हैं, जिन पर फोटो खींचने की तारीख और समय लिखा होता है। प्रारंभ में यह कार्य मैनुअल तरीके से किया जाता था, किन्तु वर्तमान समय में कम्प्यूटर के माध्यम से किया जाता है। मीडिया हाउस के फोटो प्रभाग की संरचना निम्न प्रकार होती है:-

1- फोटो संपादक : यह समाचार पत्र संगठन का महत्वपूर्ण व्यक्ति होता है, जो समाचार पत्र में प्रकाशित फोटोग्राफ के लिए जिम्मेदार होता है। बड़े समाचार पत्र संगठन में फोटो संपादक का अतिरिक्त पद होता है, जबकि छोटे या मध्यम समाचार पत्र संगठन में फोटो संपादक की जिम्मेदारी संपादक या समाचार संपादक के कंधों पर होती है। सामान्यतः फोटो संपादक अपने संगठन का जिम्मेदार व स्थाई कर्मचारी होता है। अपनेे कार्य के बदले वेतन व अन्य भत्तों को प्राप्त करता है।

2- वरिष्ठ फोटोग्राफर : यह समाचार पत्र संगठन के फोटो प्रभाग का दूसरा महत्वपूर्ण व्यक्ति होता है, जो बीट रिपोर्टरों के साथ तालमेल बनाकर फोटोग्राफी का कार्य करता है। वरिष्ठ फोटोग्राफर अनुभावी व्यक्ति होता है। इसके मार्ग दर्शन में कई अन्य फोटोग्राफर कार्य करते हैं। वरिष्ठ फोटोग्राफर अपने सहयोगी अन्य फोटोग्राफरों को आवश्यकतानुसार दिशा-निर्देश देता है।

3- फोटोग्राफर : यह समाचार के फोटो विभाग का सबसे महत्वपूर्ण कर्मचारी होता है, जो दिन-भर फोटोग्राफ के लिए इधर-उधर भटकता रहता है। फोटोग्राफर वरिष्ठ फोटोग्राफर के मार्गदर्शन में कार्य करता है। समाचार पत्र में प्रकाशित होने वाले फोटोग्राफ में फोटोग्राफर की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। कई समाचार पत्रों में फोटोग्राफर का पद स्थाई होता है तो कई में अस्थाई। स्थाई पद पर नियुक्त फोटोग्राफर प्रतिमाह वेतन व भत्ते प्राप्त करता है, जबकि अस्थाई फोटोग्राफर को निर्धारित मानदेय व अन्य भत्ते जैसे- पेट्रोल व मोबाइल इत्यादि से काम चलाना पड़ता है।

4- फ्रीलॉसर : फ्रीलॉसर फोटोग्राफर से तात्पर्य ऐसे फोटोग्राफरों से है, जो किसी समाचार पत्र संगठन के कर्मचारी नहीं होते हैं, किन्तु फोटीग्राफी के शौकीन होते हैं। ऐसे लोग अपने फोटोग्राफ के प्रकाशनार्थ समाचार पत्रों को उपलब्ध कराते हैं। कुछ फ्रीलॉसर फ्री में फोटोग्राफ उपलब्ध करता है तो कुछ अपने फोटोग्राफ के बदले कीमत भी वसूल करते हैं।


समाचार में फोटोग्राफ का महत्व (Importance of Photographs in News)

Dr Awadhesh K. Yadav (Assistant Professor)     सितंबर 19, 2024    

समाचार को फोटो के माध्यम से पाठकों तक पहुंचाने की कला को फोटो पत्रकारिता कहते हैं। वर्तमान समय में कोई भी समाचार पत्र व पत्रिका नहीं है, जो बगैर फोटोग्राफ के प्रकाशित करती है। परिणामतः फोटो पत्रकारिता एक सशक्त और प्रभावी जनसंचार माध्यम बनकर उभरा है।

संचार विशेषज्ञों का कहना है कि ‘एक अच्छी फोटोग्राफ अपने पाठकों को कई हजार शब्दों के बराबर संदेश देती है’। समाचार पत्रों व पत्रिकाओं के लिए फोटोग्राफ उतने ही महत्वपूर्ण है, जितना कि शब्दों में लिखित समाचार। भारत जैसे विकासशील देश में जहां साक्षरता दर पश्चिम के विकसित देशों की तुलना में काफी कम है, वहां फोटोग्राफ संचार का सर्वाधिक सार्थक माध्यम है। तभी कहा जाता है कि एक फोटो हजार शब्दों के बराबर संदेश देता है। समाचार पत्रों व पत्रिकाओं में समाचार के साथ फोटोग्राफ प्रकाशित करने से समाचार की विशेषता व महत्ता बढ़ जाती है। समाचार पत्रों व पत्रिकाओं में प्रकाशित फोटोग्राफ से किसी घटना या आयोजन की जानकारी मिलती है। सुभाष सप्रू ने अपनी पुस्तक ‘फोटो पत्रकारिता’ में लिखा है कि शायद ही ऐसा कोई फोटो पत्रकार होगा, जो इतिहासकार भी हो। परंतु फोटो पत्रकार ऐसे फोटोग्राफ खींचते हैं, जो शब्दों के बगैर भी किसी काल खण्ड तथा उससे जुड़े इतिहास को बताने में सक्षम होते हैं। हम देश-दुनिया में घटित होने वाली घटनाओं को अपनी प्र्रत्यक्ष आंखों से बहुत ही कम देख पाते हैं, किन्तु फोटो पत्रकारों से चाहते हैं कि वे उन घटनाओं से जुड़ी जानकारी को फोटोग्राफ के माध्यम ऐसे प्रस्तुत करें कि उन्हें देखकर हम वैसे ही आनंदित... उत्साहित... दुःखी... हों जैसे प्रत्यक्ष आंखों के सामने घटित होने पर होते हैं।

हम सभी लोगों ने जुलाई 2023 में हिमाचल प्रदेश के बाढ़ की विभिषिका को करीब से नहीं देखा है, लेकिन उससे जुड़ी फोटोग्राफ को समाचार पत्रों व पत्रिकाओं के पन्नों और टेलीविजन व मोबाइल के स्क्रीन पर जरूर देखा है। इनसे सम्बन्धित फोटो ग्राफरों ने बताया था कि आपदा कितनी भयावह थी।

न्यूयार्क टाइम्स के पूर्व संपादक टर्नर काटलैज का मानना है कि फोटोग्राफ हमारे मस्तिष्क में एक ऐसी अमिट छवि का निर्माण करते हैं, जिसमें किसी शीर्षक से परिवर्तन नहीं किया जा सकता है और न ही उसे बदला जा सकता है। चाहे वह फोटोग्राफ किसी जटिल सामाजिक समस्या के एक भाग को ही क्यों न दर्शाती हो और उसे देखने के परिणाम स्वरूप पाठक के मस्तिष्क में उस समस्या का अतिविकृत रूप ही क्यों न उभरे। हम फोटो की आवाज को न तो धीमा कर सकते हैं और न तो मौन। फोटोग्राफ में भावना को दर्शाने का पूरा अवसर होना चाहिए। यदि वह प्रकाशित करने योग्य न हो तो उसे प्रकाशित नहीं करना चाहिए।


सोमवार

फोटो पत्रकारिता की अवधारणा (Concept of Photojournalism)

Dr Awadhesh K. Yadav (Assistant Professor)     सितंबर 02, 2024    

 फोटो पत्रकारिता की अवधारणा काफी पुरानी है, क्योंकि कैमरे के आविष्कार से पहले समाचार पत्रों में रेखाचित्रों का प्रकाशन होता था। यह एक ऐसी विधा है, जिसमें भाषा की आवश्यकता नहीं होती है। कैमरा के आविष्कार के बाद समाचार पत्रों में फोटो के प्रयोग से पत्रकारिता का स्वरूप बदल गया है। फोटो के माध्यम से बड़ी से बड़ी घटना का वर्णन हो जाता है। यही कारण है कि संचार के विभिन्न माध्यमों में दृश्य माध्यम को सर्वाधिक प्रभावी माना जाता है। समाचारों और लेखों को फोटो के साथ प्रकाशित करने का मुख्य उद्देश्य पाठकों को सूचना देना, मार्ग दर्शन व मनोरंजन करना और समाचार पत्रों को आकर्षक बनाना है। ऐसे फोटो, जो सच्चाई को छुपाने तथा भ्रम फैलाने का कार्य करते हैं, फोटो पत्रकारिता की अवधारणा के दायरे में नहीं आते हैं।
फोटो पत्रकारिता ने पत्रकारिता के क्षेत्र में ऐसी क्रांति ला दी है, जिससे समाचारों व लेखों को कम शब्दों में बड़े ही प्रभावी तरीके से प्रस्तुत किया जाने लगा है। एक कहावत है कि 'एक फोटोग्राफ हजार शब्दों के बराबर होता है।' फोटो का प्रभाव कम पढ़े-लिखे लोगों पर ज्यादा पढ़ता है, जिससे उनकी अभिरूचि भी समाचार पत्रों के प्रति बढ़ने लगी है। इसका श्रेय उन सभी वैज्ञानिकों को जाता है, जिन्होंने फोटोग्राफी के आविष्कार के लिए कार्य किया। पत्रकारिता के समर्पित उन व्यक्तियों को भी नहीं भुलाया जा सकता है, जिन्होंने फोटोग्राफी से पहले समाचार पत्रों को आकर्षक बनाने के लिए रेखाचित्रों का उपयोग किया तथा फोटोग्राफी का आविष्कार होने के बाद फोटो का उपयोग करने लगे।


लंदन से प्रकाशित ‘इलेस्ट्रेड लंदन’ दुनिया का पहला समाचार पत्र है, जिसने 1842 में सबसे पहले फोटो के साथ समाचार को प्रकाशित किया। तब उसकी पाठकों के बीच खुब चर्चा हुई। लंदन के बाद फोटो पत्रकारिता की शुरूआत अमेरिका में हुई। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान फोटो पत्रकारिता को विशेष महत्व दिया गया। यहीं कारण है कि 20वीं शताब्दी के पहले और दूसरे दशक में फोटोग्राफ और सिण्डीकेट्स काफी लोकप्रिय हो गये थे। प्रारंभ में फोटोग्राफी का कार्यकाफी खर्चीला कार्य था, किन्तु तकनीकी के विकास के कारण काफी सस्ता हो गया है।


वर्तमान समय में शायद ही ऐसा कोई समाचार पत्र या पत्रिका हो, जो अपने पेजों पर समाचारों व लेखों के साथ फोटो प्रकाशित न करती हो। वैसे भी, मानव उस समाचार को लम्बे समय तक याद रखता है, जिसे अपनी आंखों के सामने घटित होते हुए देखता है। मानव की इसी मनोवृत्ति के कारण समाचार पत्रों ने समाचारों व लेखों को फोटो के साथ प्रकाशित करना आरंभ किया। फोटोग्राफ से प्रकाशित समाचारों की स्वतः पुष्टि हो जाती है। फोटो प्रमाण का कार्य भी करते हैं। दैनिक ट्रिब्यून के समाचार संपादक जितेंद्र अवस्थी के अनुसार-फोटो के माध्यम से दर्शाए गए तथ्यों को झूठलाया नहीं जा सकता है। समाचार चाहे कितने ही शब्दों में क्यों न लिखा जाए, यदि उसे फोटो के साथ प्रकाशित किया जाता है तो उसकी विश्वसनीयता और अधिक बढ़ जाती है। यदि एक आकर्षक फोटो के साथ आकर्षक शीर्षक भी लिखा जाए तो पाठक के लिए फोटो और अधिक रोचक बन जाता है।


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