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शनिवार

ऑसगुड-श्राम का संचार प्रारूप (Osgood-Schramm’s Modal of Communication)

Dr Awadhesh K. Yadav (Assistant Professor)     नवंबर 02, 2013    


        चाल्र्स ई.ऑसगुड मनोभाषा विज्ञानी थे, जिन्होंने सन् 1954 में अपना संचार प्रारूप विकसित किया, जो पूर्व के प्रारूपों से बिलकुल भिन्न है। ऑसगुड के अनुसार- संचार की प्रक्रिया गत्यात्मक व परिवर्तनशील होती है, जिसमें भाग लेने वाले प्रत्येक प्रतिभागी (संचारक व प्रापक) संदेश सम्प्रेषण व ग्रहण करने के साथ-साथ कूट रचना या संकेतीकरण (Incoding), कूट वाचन या संकेत ग्राहक (Decoding) तथा संदेश की व्याख्या का कार्य भी करते हैं। अत: दोनों को व्याख्याकार (Interpretor) की भूमिका निभानी पड़ती है। ऑसगुड का मानना है कि संचार की गत्यात्मक व परिवर्तनशील प्रक्रिया के कारण एक समय ऐसा आता है, जब संदेश सम्प्रेषित करने वाले संचारक की भूमिका बदलकर प्रापक की तथा कुछ देर बाद पुन: संचारक की हो जाती है। इसी प्रकार, सूचना ग्रहण करने वाले प्रापक की भूमिका भी क्रमश: बदलकर संचारक तथा कुछ देर बाद पुन: प्रापक की हो जाती है। संचारक व प्रापक की भूमिका के परिवर्तन में संदेश की व्याख्या का महत्वपूर्ण स्थान होता है। 

        इसे विलबर श्राम ने प्रारूप का रूप दिया, जिसे सर्कुलर प्रारूप कहते है। ऑसगुड-श्राम के सर्कुलर प्रारूप को निम्नलिखित रेखाचित्र के माध्यम से समझा जा सकता है :- 


        उपरोक्त संचार प्रारूप के संदर्भ में ऑसगुड-श्राम का मानना है कि संदेश सम्प्रेषित करना और ग्रहण करना स्वाभाविक रूप से भले ही दो अलग-अलग कार्य हो, लेकिन मानव दोनों कार्यों को एक ही समय में करता है। अत: संचार की दृष्टि से दोनों एक ही कार्य है। इस प्रारूप में संदेश संप्रेषित करने वाले- संचारक और संदेश ग्रहण करने वाले- प्रापक को व्याख्याकार (Interpretor) कहा गया है। व्याख्याकार पहले संकेतों के रूप में संदेश की रचना करता है, फिर उसे सम्प्रेषित करता है। तब वह कूट लेखक व संकेत प्रेषक (Incoder) की भूमिका में होता है। उसे ग्रहण करने वाला कूट वाचक व संकेत ग्राह्यता (Decoder) होता है, क्योंकि वह संदेश के अर्थ को समझने के लिए व्याख्याकार (Interpretor) की भूमिका को निभाता है। इसके बाद कूट वाचक या संकेत ग्राह्यता अपनी प्रतिक्रिया की कूट/संकेत में भेजते समय कूट प्रेषक (Incoder) बन जाता है, जबकि उसे प्राप्त करने वाला कूट वाचक (Decoder  होता है। इस तरह, दोनों (संचारक व प्रापक) व्याख्याकार होते हैं। यह प्रक्रिया लगातार चलती रहती है, जिसके कारण ऑसगुड-श्राम के प्रारूप को सर्कुलर प्रारूप कहा जाता है।

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