विज्ञापन का उद्भव: विज्ञापन का उद्भव और विकास समाज और संचार माध्यमों के साथ जुड़ा है, क्योंकि जैसे-जैसे भाषा, लिपि और संचार माध्यमों का विकास होता गया, वैसे-वैसे विज्ञापन का भी। भाषा और लिपि के अभाव में मानव अपने विचारों को पेड़ और चट्टानों पर विभिन्न प्रकार की आकृतियां बनाकर विज्ञापित करता था। भारत में स्वास्तिक और यूरोप में क्रास के चिन्ह धार्मिक प्रचार प्रतीक के रूप में वर्षों तक प्रचलित रहे। इसके अलावा बर्तनों और दीवारों पर बनी कलाकृतियां वैचारिक विज्ञापन का उदाहरण हैं। ब्रिटेन और अमेरिका में खुदाई के दौरान मिलें अवशेषों से पता चलता है कि वहां के भवनों पर ऐसे प्रतीक बनाए जाते थे, जो लोगों को गली-मोहल्लों और किसी व्यक्ति के घर का पता बताने में सक्षम थे। जैसे- बेकरी की दुकान के सामने पॉव की आकृति, मांस विक्रता की दुकान के सामने जानवर की आकृति, अर्थात.. जिस दुकान में जो वस्तु मिलती थी, उसके सामने उसी से मिलती-जुलती आकृति बना दी जाती थी। सभ्यता के विकास के साथ इन चित्रों को बोर्ड पर बनाकर लगाये जाने लगा।
भारतीय धर्म ग्रंथों और पौराणिक कथाओं में डुग-डुगी और नगाड़ा बजाकर स्वयंवर व अश्वमेघ यज्ञ का प्रचार करने का प्रमाण मिलता है। खेलकूद, नौटंकी, नीलामी तथा तीज-त्यौहार के दौरान भीड़ एकत्र करने के लिए भी डुग-डुगी का प्रयोग किया जाता था। राजाओं-महाराजाओं के संदेशों और आदेशों को डुग-डुगी बजाकर पूरे राज्य में विज्ञाप्ति किया जाता था। जैसे-
डुग-डुग...डुग-डुग... (डुगडुगी की आवाज)।
सुनो... सुनो... सुनो... भाईयों-बहनों सुनो।
आने वाले सोमवार को सुबह दस बजे
कस्साई बाड़े की सालाना नीलामी होगी।
डुग-डुग...डुग-डुग... (डुगडुगी की आवाज ।।
हड़प्पा, मोहनजोदड़ो और सिंधुघाटी की खुदाई के दौरान मोहरों पर मानव, पशु, वृक्ष आदि की आकृतियां मिली है, जिनके ऊपर अज्ञात लिपि में चित्राक्षर लेख भी थे, जिन्हें आजतक ठीक से पढ़ा नहीं जा सकता है। एक अनुमान के मुताबिक इन लेखों में व्यक्तियों, व्यापारियों और देवताओं के नाम हैं। इसके अतिरिक्त पत्थर की गढ़ी हुई आकृतियां, मिट्टी की कलाकृतियां, हाथी दांत निर्मित वस्तुएं और खिलौने भी मिलें, जो विज्ञापन के उदाहरण हैं। बौद्ध काल में सम्राट अशोक ने धर्म प्रचार के लिए अनेक शिला-लेखों को लगवाया, स्पूत और लाट बनवाया। सारनाथ (वाराणसी) स्थित ‘अशोक की लाट’ भारत का राष्ट्रीय चिन्ह बना। वात्स्यायन ने अपने ग्रंथ ‘कामसूत्र’ में जिन 64 कलाओं का वर्णन किया है, अजन्ता-एलोरा की गुफाओं तथा कोर्णाक-खजुराहो के मंदिरों में आज भी विद्यमान हैं तथा विज्ञापन का कार्य कर रहे हैं। इस प्रकार, कालांतर में जैसे-जैसे भाषा और लिपि का विकास होता गया, वैसे-वैसे विज्ञापन का स्वरूप और माध्यम बदलता गया।
विज्ञापन का विकास: भारत में आधुनिक विज्ञापन के विकास का कोई प्रमाणिक इतिहास उपलब्ध नहीं है। फिर भी सन् 1556 में पुर्तगालियों द्वारा गोवा में पहला प्रेस लगाये जाने का प्रमाण मिलता है। सन् 1780 में प्रकाशित भारत के पहले समाचार पत्र ‘बंगाज गजट’ में खोया और पाया, लाटरी, आवश्यकता है, सार्वजनिक नीलामी इत्यादि के विज्ञापन प्रकाशित होते थे। सन् 1784 से 19वीं शताब्दी के आरंभ तक समाचार पत्रों में तत्कालीन समाज में विद्यमान बुराईयों, धार्मिक पुस्तकों और इलाज के लिए दवा आदि पर केंद्रीत विज्ञापन प्रकाशित होते थे। सन् 1890 में छपने वाले विज्ञापनों में लगभग 50 प्रतिशत विज्ञापन एलोपेथिक दवाओं से संबंधित अंग्रेजी भाषा में होते थे। इन विज्ञापनों में मॉडल के रूप में अंग्रेज महिलाओं और पुरुषों के चित्र प्रकाशित किए जाते थे।
20वीं शताब्दी के प्रारंभ में स्टेट्समैन और टाइम्स ऑफ इंडिया ने विज्ञापनदाताओं को कला सम्बन्धी, कॉपी लेखन की सेवा उपलब्ध करायी। सन् 1906 में धारीवाल कंपनी ने ‘भारत में बना भारत का’ शीर्षक से ऊनी कपड़ों का विज्ञापन दिया। रेलवे, बैकिंग, शेयर बाजार आदि के आगमन से विज्ञापन को बढ़वा मिला। सन् 1907 में पहली भारतीय विज्ञापन एजेंसी बम्बई में स्थापित हुई। सन् 1910 में टाइम्स ऑफ इंडिया ने अपने वार्षिक अंक में पहली बार रंगीन विज्ञापन प्रकाशित किया। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान समाचार पत्रों की प्रसार संख्या में बढ़ोत्तरी हुई। युद्ध के बाद भारतीय बाजार में विदेशी वस्तुएं आने लगी, इसके विज्ञापन के लिए वाह्य माध्यम- होर्डिग, बैनर इत्यादि का प्रयोग होने लगा। सन् 1920 के आस-पास विदेशी विज्ञापन एजेंसी की शाखा भारत में खुली। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जनता का मनोबल बढ़ाने तथा युद्ध में मदद लेने के उद्देश्य से अनेक विज्ञापन समाचार पत्रों में प्रकाशित होते थे। इनमें स्वस्थ्य युवकों को सेना में भर्ती होने के लिए प्रोत्साहित करने वाले विज्ञापन भी थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सरकारी प्रचार कार्य का तेजी से विस्तार हुआ। इससे समाचार पत्रों की आमदनी में बढ़ोत्तरी हुई। युद्ध के दौरान सरकारी विज्ञापनों क्रिएटिव पब्लिसिट यूनिट (जिसका बाद में नामकर ।।।-एसोसिएटेड एडवरटाइजिंग एजेंसी किया गया) द्वारा जारी किया जाता था। युद्ध के पश्चात सरकारी विज्ञापन व्यय के नियंत्रण, विज्ञापन बिलो का भुगतान और प्रचार गतिविधियों पर सुझाव देने के लिए विज्ञापन परामर्शदाता के पद पर ब्रिटिश नागरिक मेजर पीटर जॉनसन को नियुक्त किया गया। 1943 में मेजर पीटर के स्थान पर अरशाद हुसैन को विज्ञापन परामर्शदाता बनाया गया। भारत के अंतिम विज्ञापन परामर्शदाता का नाम सबनीश था। 1955 में विज्ञापन परामर्शदाता का नाम बदलकर क्।टच्- विज्ञापन एवं दृश्य पंचार निदेशालय कर दिया गया। इससे पूर्व सन् 1939 में ‘इंडियन एण्ड ईस्टर्न न्यूज पेपर एसोसिएशन’ का गठन किया गया। सन् 1945 में ‘एडवरटाइजिंग एसोसिएशन ऑफ इंडिया’ की स्थापना हुई।
आजादी के बाद सन् 1948 में समाचार पत्रों की प्रसार संख्या को प्रमाणित करने के लिए ।ठब् (ऑडिट ब्यूरो ऑफ सर्कुलेशन) की स्थापना हुई। सन् 1950 में विज्ञापन फिल्में बनी। सन् 1952 में भारतीय विज्ञापन समिति स्थापित की गयी। सन् 1962 में विज्ञापन क्लब, बम्बई की स्थापना हुई। इस क्लब द्वारा श्रेष्ठ विज्ञापन के लिए अखिल भारतीय पुरस्कार दिया जाने लगा। 2 नवंबर, 1967 को रेडियो पर विज्ञापन प्रसारण सेवा की शुरूआत हुई। सन् 1967 में ही नेशनल कॉउन्सिल ऑफ एडवरटाइजिंग एजेंसी गठित हुई। 01 जनवरी, 1976 से दूरदर्शन पर विज्ञापनों का प्रसारण प्रारंभ हुआ। पश्चिम देशों की तरह भारत में विज्ञापन कला एवं व्यवसाय के विकास कर सबसे बड़ा कारण भौतिकी दृष्टिकोण, आगे बढने की होड़ और बदलता सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक परिवेश है। सन् 1990 के बाद भारतीय महिलाओं ने विज्ञापन के क्षेत्र में कदम रखा।
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