रेडियो संचार का सर्व सुलभ तथा सबसे सस्ता माध्यम है। इस पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों रूपरेखा तीन माह के लिए बनाया जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि एक साल का कार्यक्रम चार तिमाही खण्डों में विभाजित होता है। जैसे- जनवरी से मार्च, अप्रैल से जून, जुलाई से सितम्बर और अक्तूबर से दिसम्बर। किसी भी तिमाही खण्ड के दौरान प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों से सम्बन्धित कार्य योजना की तैयारी लगभग डेढ़ माह पूर्व शुरू कर दी जाती है, जिससे कार्यक्रम निर्माण से सम्बन्धित व्यक्तियों, कलाकारों आदि के साथ समय से अनुबन्ध हो सके। रेडियो पर समसामयिक विषयों पर वार्ता, परिचर्चा, समाचार, लाइव कमेंट्री, नाटक, संगीत, परिवार कल्याण, फोन-इन कार्यक्रम, ग्रामीण श्रोता कार्यक्रम, युवाओं, महिलाओं, किसानों ओर सैनिकों के लिए कार्यक्रम इत्यादि का प्रसारण किया जाता है।
रेडियो प्रसारण की महत्वपूर्ण विधा है- वार्त्ता है, जिसका शाब्दिक अर्थ ‘वृतांत‘ या ‘बातचीत’ होता है। वार्ता को अंग्रेजी में Talk कहते हैं। सामान्यतः जब दो लोग आपस में बातचीत करते हैं तो उसे वार्ता कहा जाता है, लेकिन रेडिया वार्ता एक पक्षीय होता है। 1927 में जब रेडियो का प्रसारण प्रारंभ हुआ, तब आकाशवाणी के बम्बई केंद्र से 23 वार्ताओं का प्रसारण हुआ। इनमें सात भारतीय भाषाओं के थे, शेष अन्य अंग्रेजी भाषा के। रेडियो पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों में वार्त्ता को सबसे सरल फारमेंट माना जाता है, क्योंकि इसमें एक ही व्यक्ति अपने विचारों को रखता है। रेडियो वार्ता का दूसरा पक्ष श्रोता होता है, जो वार्ताकार की बातों को सुनता है। रेडियो वार्त्ता की सफलता में वार्त्ताकार पर निर्भर करती है, क्योंकि उसे अपनी वार्ता से श्रोताओं के मन में स्वयं के साथ वार्त्ता करने का भाव उत्पन्न करना पड़ता है, जो सामान्य कार्य नहीं है। इसके लिए वार्त्ताकार को भाषा-शैली और वाक्य संरचना पर विशेष ध्यान देना पड़ता है। अधिकांश लोग समाचार-पत्र लेखन और रेडिया लेखन को एक ही मानते हैं, जबकि दोनों में उतना ही बड़ा अंतर होता है, जितना पढ़ने और बोलने में है। रेडियो पर प्रसारित होने वाले वार्ता का सीधा सम्बन्ध श्रोता से होता है।
स्टूडियो में बैठा वार्त्ताकार माइक्रोफोन से सामने अपनी वार्ता को वैसे पढ़ता है जैसे वह श्रोता के सामने बैठा हो। यह भाव उत्पन्न करने में वार्त्ताकार कामयाब होता है तो वार्त्ता को सफल माना जाना है। रेडियो वार्ता को स्पोकन वर्ड कहा जाता है। वार्ता का आलेख तैयार करते समय भाषा शैली का विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है। वार्त्ता की भाषा शैली श्रोता समुदाय के अनुरूप होती है। सामान्यतः वार्ता में सरल, प्रचलित और कर्णप्रिय शब्दों का प्रयोग किया जाता है।
रेडियो वार्त्ता निम्न प्रकार के होते हैं :-
- सूचनात्मक वार्त्ता : विज्ञान, इतिहास, अर्थशास्त्र, खेल, ज्योतिषशास्त्र, खगोलशास्त्र आदि विषयों पर आधारित वार्ता सूचनानात्मक वार्ता की श्रेणी में आते हैं।
- ज्ञानात्मक वार्त्ता : जब अनुभवी वैज्ञानिक, इतिहासकार, खगोलशास्त्री, अर्थशास्त्री आदि विवेचना प्रस्तुत करते हैं, तब निश्चय ही वह मात्र सूचनाओं का संग्रह नही होता अपितु ये वार्ताएं श्रोताओं की तर्कशक्ति, सोच और विश्लेषण को भी प्रभावित करती है। ऐसी वार्ताओं को ज्ञानात्मक वार्ता कहा जाता है।
- साहित्यिक वार्त्ता : जब किसी साहित्यिक विषय को अपनी विशेष शैली में वार्ताकार अपनी बात कहता है तो वह साहित्यिक वार्ता कहलाती है। इस वार्ता में साहित्यिक भाषा तथा सटीक शब्दों का चयन अनिवार्य शर्त है। इनकी भाषा सारगर्भित, सहज तथा सुगम होनी चाहिए।
- व्यंग्यात्मक वार्त्ता : रेडियो की आचार संहिता के अनुसार किसी व्यक्ति, संगठन, समुदाय, धर्म या जाति पर सीधे प्रहार नहीं किया जा सकता। किन्तु परोक्ष रूप से किसी का नाम लिए बिना व्यंग्यात्मक भाषा का इस्तेमाल किया जा सकता है। इसमें अक्सर सामाजिक वर्जनाओं, राजनैतिक फूहड़पन तथा पाखंड का पर्दाफाश करने के लिए कटाक्ष से भरे वाक्यों, व्यग्यों तथा मुहावरों आदि का भरपूर इस्तेमाल किया जाता है।
डा. सुरेश यादव ने अपनी पुस्तक "प्रसारण पत्रकारिता" में लिखा है कि- प्रारंभिक प्रसारण के दिनों में आकाशवाणी से वार्ता का प्रसारण सुनिश्चित किया गया। इसका परिभाषिक स्वरूप न तो निबन्ध के समरूप था और न किसी साहित्यिक स्वरूप की सीमा में बंधता था। श्रोताओं से बतियाना, बोलचाल व बातचीत करना यहीं इसका परिभाषिक स्वरूप था।
रेडियो पर वार्त्ता प्रसारण के लिए 15 मिनट का समय निर्धारित किया गया है। वर्तमान समय में लघु वार्त्ता का भी प्रचलन आ गया है। इसके अंतर्गत किसी भी विषय में संक्षिप्त जानकारी प्रस्तुत की जाती है। लघु वार्त्ता का प्रसारण आकाशवाणी के लगभग सभी केंद्र करते हैं। इसका प्रसारण कहीं चिंतन के नाम से किया जाता है तो कहीं प्रभात किरण के नाम से, तो कहीं आज का विचार शीर्षक से। वार्त्ता की सफलता के लिए वार्त्ता के विषय का चयन का सोच-समझकर तथा आपस में विचार-विमर्श के बाद किया जाता है। इसके बाद वार्ताकार का चुनाव किया जाता है। वार्तकार का चुनाव करते समय यह ध्यान में रखना चाहिए कि सम्बन्धित व्यक्ति विषय विशेषज्ञ होने के साथ-साथ शब्द कोष का धनी और निष्पक्ष भी हो। उसके अंदर अपने शब्दों से श्रोताओं को बांधकर रखने का गुण भी हो।
सामान्यतः रेडियो वार्ता के मुख्यतः तीन अंश होते हैं। पहला- अग्रांश, दूसरा-मध्यांश और, तीसरा- उपसंहार। अंग्राश वार्त्ता का प्राणतत्व होता है। इसे प्रस्तावना भी कहा जाता है। एक सफल वार्त्ता की प्रस्तावना आकर्षक होने के साथ-साथ श्रोताओं को बांधे रखने में सक्षम होती है। वार्त्ता के अग्रांश भाग में श्रोता के मन में उत्सुकता उत्पन्न करने की क्षमता होती है। अग्रांश भाग में ही विषयवस्तु से सम्बन्धित प्रमुख बातों व सूचनाओं को कलात्मक ढंग से प्रस्तुत कर दिया जाता है।
मध्यांश में पूरी वार्त्ता का सम्पूर्ण कलेवर प्रस्तुत किया जाता है। साथ ही श्रोता के मन में उत्पन्न जिज्ञासा को शांति करने का प्रयास किया जाता है। वार्त्ता को आगे बढ़ाते समय श्रोताओं की अभिरूचि को विशेष रूप से ध्यान में रखा जाता है। तथ्यों के आधार पर प्रस्तुत वार्त्ता में पुष्टिकरण की समस्या का स्वतः ही समाधान हो जाता है। तथ्यों का प्रस्तुतिकरण बड़े ही आकर्षक एवं रोचक तरीके से किया जाता है, जिसका उद्देश्य वार्त्ता को बोझिल व नीरस होने से बचाना है।
वार्ता का उपसंहार बहुत ही महत्वपूर्ण होता है। इसे वार्ता का सारतत्व भी कहा जाता है। उपसंचार में पूरी वार्त्ता के निचोड़ को कम-से-कम शब्दों में प्रस्तुत किया जाता है।
0 टिप्पणियाँ :