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रविवार

कैमरा के प्रकार (Types of Camera)

Dr Awadhesh K. Yadav (Assistant Professor)     अक्टूबर 20, 2024    

 कैमरा (Camera) फोटोग्राफी के दौरान उपयोग किये जाने वाला एक उपकरण है। फोटोग्राफी के लिए पीनहोल कैमरा, व्यू कैमरा, काम्पैक्ट कैमरा, टविन लैन्स रिफ्लैक्स कैमरा, सिंगल लैन्स रिफ्लैक्स कैमरा, इन्सटैंट कैमरा, डिजिटल कैमरा का उपयोग किया जाता है।  

  1. पिनहोल कैमरा (Pinhole Camera) : पिनहोल कैमरा एक साधारण कैमरा होता है, जिसमें लैंस नहीं लगा होता है। यह एक छोटे से एपर्चर (तथाकथित पिनहोल) की मदद फोटोग्राफी का कार्य करता है। अन्य शब्दों में कहें तो यह एक छोटे से छिद्र वाला लाइट-प्रूफ बॉक्स होता है, जिसमें दृश्य से प्रकाश एपर्चर के माध्यम से गुजरता है और बॉक्स की दूसरी दिशा में उल्टी छवि का निर्माण करता है। बाद में इसमें एक लैंस का उपयोग किया जाने लगा।

  2. व्यू कैमरा (View Camera: यह कैमरे बड़े आकार का होता हैं, जिसे स्टैण्ड पर लगाकर फोटोग्राफी का कार्य किया जाता है। व्यू कैमरा में व्यूफाइंडर नहीं होता है। फिल्म की स्थान पर एक व्यूफाइंडर स्कीन लगी होती है, जिसमें विषय-वस्तु या दृश्य को देखकर फोटोग्राफी की जा सकती है। इस कैमरे के व्यूफाइंडर में सीधे खड़े व्यक्ति का दृश्य उल्टा दिखाई देता है अर्थात सिर नीचे और पाँव ऊपर होता। ऐसे कैमरों को आगे और पीछे दोनों भागों में अलग-अलग संतुलित किया जाता है। व्यू कैमरा का सबसे बड़ा दोष यह है कि इसमें न तो बहुत नजदीक (Extreme Closeup) की फोटोग्राफी की जा सकती है और न तो इनमें क्षेत्रीय-गहनता (Depth of Field) का ही सही अनुमान लगाया जा सकता है।
  3. कॉम्पैक्ट कैमरा (Compact camera) : यह छोटे आकार का कैमरा होता है, जिसमें लैन्स बदले की सुविधा नहीं होती है। हालांकि कॉम्पैक्ट कैमरा में अच्छी किस्म का लैन्स लगा होता है। बाजार में ऐसे कॉम्पैक्ट कैमरा भी उपलब्ध है, जिनमें जूम लैन्स पहले से ही लगा होता है। इनकी क्षेत्रीय-गहनता (Depth of Field) तीन फीट से अन्तत तक होती है। इनमें अच्छी फोटोग्राफी की क्षमता होती है। बाजार में ऐसे कॉम्पैक्ट कैमरा भी उपलब्ध हैं, जिनमें एक्सपोजर को नियन्त्रित करने के लिए स्वः चालित प्रणाली लगी होती है। कुछ ऐसे मॉडल भी आ गये हैं, जिनमें पहले से लगी फ्लैश की सुविधा होती है। इसके अलावा फोटोग्राफ पर दिन और वर्ष मुद्रित करने की सुविधा भी होती है। कॉम्पैक्ट कैमरा उन व्यक्तियों के लिए उपयोगी है, जिन्हें कभी-कभार फोटोग्राफी करनी होती है। ऐसे कैमरे से फोटो खींचना बहुत आसान होता है। विषय वस्तु को व्यू फाइंडर में से देखते हुए बटन दबा कर फोटो खींची जा सकती है। एपरचर या शटर की गति को बदलने की आवश्यकता नहीं होती है। कॉम्पैक्ट कैमरों में फोटोग्राफी के दौरान उपभोक्ताओं को कुछ असुविधाओं का सामना भी करना पड़ता हैं। जैसे- इन कैमरों में अलग से फिल्टर, लैन्स, फ्लैश आदि लगाने की सुविधा नहीं होती है। इनसे खींचे गए फोटोग्राफ भी उतने शार्प नहीं होते, जितने कि किसी SLR कैमरा के होते हैं, क्योंकि कॉम्पैक्ट कैमरे का रैजोलूशन काफी कम होता है। कॉम्पैक्ट कैमरे का प्रयोग करके अच्छी फोटोग्राफी नहीं सीखी जा सकती, क्योंकि इसमें एपरचर, प्रकाश मीटर व शटर की गति का आवश्यकतानुसार अभ्यास करने की सुविधा नहीं होती है। पहले से लगे लैंस, फ्लैश आदि की एक निश्चित सीमा होती है। इनमें सीमित एपरचर की सुविधा के कारण तेज गति की फिल्म का प्रयोग किया जाता है। 
  4. टविन लैन्स रिफ्लैक्स कैमरा (TLR- Twin Lens Reflex Cameraa) : TLR कैमरा में दो लैन्स होते हैं, जिनकी फोकल लैन्थ एक समान होती है। दोनों लैन्स एक-दूसरे के ऊपर लगे होते हैं। इनकी धूरी समतल और एक-दूसरे के समानान्तर होती है। ऊपर वाले लैन्स का प्रयोग विषय वस्तु या दृश्य को देखते हुए कम्पोज करने के लिए किया जाता है, जबकि नीचे वाले लैन्स का प्रयोग फिल्म पर वास्तविक प्रतिबिम्ब बनाने के लिए किया जाता है। SLR कैमरे की तरह TLR कैमरे में भी ऊपर वाले लैन्स के माध्यम में खुले एपरचर के कारण प्रतिबिम्ब धुंधले शीशे की समतल स्क्रीन पर बनता है। यद्यपि टविन लैन्स रिफ्लैक्स कैमरा में 120 या 220 आकार की फिल्मों का प्रयोग किया जाता है, इनमें ऐसा प्रावधान भी किया जाता है कि 35 मि.मी. आकार की फिल्म प्रयोग की जा सके। अधिकतर टविन लैन्स रिफ्लैक्स कैमरों में लैन्स नहीं बदले जा सकते, परन्तु कुछ निर्माताओं ने ऐसे टविन लैन्स रिफ्लैक्स कैमरे बनाए हैं, जिनमें लैन्स बदले जा सकते हैं। रोलिफ्लैक्स, मैमिया और हैसलब्लैंड प्रसिद्ध टविन लैन्स रिफ्लैक्स कैमरे हैं।
  5. सिंगल लैन्स रिफ्लैक्स कैमरा (SLR- Single Lens Reflex Camera) : अपने छोटे आकार और अन्य गुणों के कारण सिंगल लैन्स रिफ्लैक्स (SLR) कैमरा बहुत ही लोकप्रिय है। इस कैमरे की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसके व्यू फाइंडर में हम  जैसा प्रतिबिम्ब देखते हैं, वैसा ही फोटोग्राफी खींचता है। SLR कैमरों में विषय वस्तु को देखने और फोटो को खींचने के लिए एक ही लैन्स का प्रयोग किया जाता है। यही कारण है कि इस कैमरे से हम उपयुक्त कम्पोजिशन बना सकते हैं और फोटो खींचते समय फोकस को शार्प करते हुए Depth of Field भी देख सकते हैं। लैन्स के पीछे लगा दर्पण (Plane Mirror) धुंधले शीशे की स्क्रीन पर प्रतिबिम्ब बनाता है और शटर का बटन दबाते ही शीशा ऊपर की ओर उठ जाता है। इस प्रकार, प्रकाश की किरणें फिल्म पर पड़ती हैं और दृश्य अंकित हो जाता है। आमतौर पर ऐसे कैमरों में यह दर्पण तब अपनी वास्तविक स्थिति में लौटकर आता है, जब फिल्म अगले फोटो के लिए आगे घूम जाती है, परन्तु मंहगे SLR कैमरों में ऐसा नहीं हैं। उनमें दर्पण ऊपर उठने के तुरन्त बाद अपनी वास्तविक स्थिति में लौट आता है। इन कैमरों में फोकल प्लेन शटर का प्रयोग किया जाता है। SLR कैमरे की एक मुख्य विशेषता यह है कि इसके लैन्सों को बदलने की सुविधा होती है। 
  6. पोलेराइड कैमरा (Polaroid Camera) : पोलेराइड कैमरों को इन्सटैंट कैमरा भी कहा जाता हैं क्योंकि इनके द्वारा खींचे गए फोटोग्राफ के प्रिंट्स को कुछ ही देर में प्राप्त किया जा सकता है। डार्करूम में जाकर फिल्म डेवलेप कर नेगेटिव बनाने और फोटोग्राफ प्रिंट बनाने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। पोलेराइड कैमरे का आविष्कार सन् 1947 में संयुक्त राज्य अमेरिका के डा. एडविन लैंड (Dr- Edwin Land) ने किया था। ऐसे कैमरे से ब्लैक एंड व्हाइट और रंगीन दोनों प्रकार के फोटोग्राफ खींचे जा सकते हैं। इनमें फ्लैश का प्रयोग किया जा सकता है। इनके द्वारा खींचे गए फोटोग्राफ गुणवत्ता की दृष्टि से परपरागत कैमरों के खींचे गये फोटोग्राफ की तरह नहीं होते हैं। फिर भी, इनसे जो फोटो खींचे जाते हैं वे स्पष्ट होते हैं। यह कैमरा कम समय में फोटोग्राफ खींचने के लिए अच्छा माना जाता है। पोलेराइड कैमरों में मिनिएचर लैब होता है, जो तुरंत फोटोग्राफ उपलब्ध कराता है।
  7. डिजिटल कैमरा (Digital Camera: डिजिटल कैमरे कंप्यूटर-क्रांति की देन हैं। फोटोग्राफी विधा में इन कैमरों के आगमन से हलचल मच गई है। फोटो पत्रकारिता के लिए डिजिटल कैमरे उपयुक्त होता है। इनमें न तो फिल्म लगाने की आवश्यकता होती है और न ही उसे डेवलप कराने की। क्लिक करने ही सामने का दृष्य कैमरे की मेमोरी में सेव हो जाता है, फिर उसे कंप्यूटर में डाउनलोड किया जा सकता है। मन चाहे दृश्य को ही कैमरे की मेमोरी में रखने और अनचाहे दृश्य को डीलीट (Delete) करने की सुविधा होती है। इसके प्रिंट की क्वालिटी भी आकर्षक होती है। डिजिटल कैमरों में दृश्य देखने के लिए व्यूफाइंडर के अलावा स्क्रीन भी लगा होती है। दृश्य को कंपोजिशन करने और अनावश्यक चीजों को निकालने की सुविधा उपलब्ध भी होती है। यह कैमरा काफी कीमती और रख-रखाव की दृष्टि सेे नाजुक होता है। इनमें कुछ ऐसे कैमरे होते हैं जिनमें फिल्म के स्थान पर फ्लापी लगाई जा सकती है। एक फ्लापी को भर जाने के बाद बदला भी जा सकता है। फ्लापी को कंप्यूटर में डाउनलोड करके प्रिंट आउट लिया जा सकता है। 

वर्तमान समय में सस्ते डिजिटल कैमरें भी बाजार में उपलब्ध हैं। इन कैमरों में लो (Low) लाइट में भी शॉट लेने की अद्भुत क्षमता होती है। लाइट के प्रति ये अत्यंत संवेदनशील होते हैं। जिस लाइट में SLR कैमरों से शॉट लेना संभव नहीं है, उसी लाइट में भी डिजिटल कैमरों से फोटोग्राफी की जा सकती है। लेकिन इनकी भी अपनी सीमाएं हैं। 

डिजिटल और परम्परागत फोटोग्राफी में अंतर

सुभाष सप्रू ने अपनी पुस्तक ‘फोटो पत्रकारिता’ में डिजिटल और पारंपरिक फोटोग्राफी के महत्त्व को निम्न प्रकार दर्शाया है-

  1. डिजिटल कैमरों में सी.डी. (Compact disk) पर प्रतिबिम्ब इलैक्ट्रॉनिक संकेतों से बनता है, जबकि पारंपरिक कैमरों में फिल्म पर लगे घोल (Emulsion) पर प्रकाश पड़ने पर रासायनिक प्रक्रिया होती है। 
  2. डिजिटल फोटोग्राफी में फोटो खींचने के उपरांत प्रतिबिम्ब को दर्ज करने तथा उसे स्टोर करने के लिए अलग-अलग स्थान होता है, जबकि पारंपरिक फोटोग्राफी में फिल्म एक्सपोज करने के बाद प्रतिबिम्ब को उसी स्थान पर स्टोर किया जा सकता है।
  3. डिजिटल कैमरों में प्रिंट बनाने से पहले नेगेटिव बनाने की आवश्यकता नहीं पड़ती, जबकि पारंपरिक कैमरों में प्रिंट बनाने के लिए नेगेटिव बनाना आवश्यक है।
  4. डिजिटल कैमरों में प्रिंट बनाने के लिए न ही रसायनों की आवश्यकता होती है और न ही डार्करूम की। जबकि पारंपरिक कैमरों में इसकी आवश्यकता अहम् होती है।
  5. डिजिटल फोटोग्राफी में रसायनों का प्रयोग न होने के कारण पर्यावरण के प्रदूषण की संभावना नहीं रहती जबकि पारंपरिक फोटोग्राफी में रसायनों का प्रयोग होने के कारण पर्यावरण प्रदूषित होता है।
  6. डिजिटल फोटोग्राफी में मैमोरी स्टिक या फ्लापी को कंप्यूटर में डालकर किसी फोटो इमेजिंग साफ्टवेयर की सहायता से फोटो में तब्दील करके उसका प्रिंट निकाला जा सकता है, जबकि पारंपरिक फोटोग्राफी में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। 
  7. डिजिटल कैमरों से कम प्रकाश में भी फ्लैश का प्रयोग किए बिना फोटो खींच सकते हैं, जबकि पारंपरिक कैमरों से कम प्रकाश में फोटो खींचना काफी कठीन कार्य है।
  8. डिजिटल कैमरो से खींचा गया फोटो यदि अच्छा न लगे तो उसे उसी समय मिटाकर उसके स्थान पर दोबारा खींच सकते हैं। जबकि पारंपरिक फोटोग्राफी में दोबारा फोटो खींचने के लिए नया नेगेटिव बनाना पड़ता है।


वर्ल्ड वाइड वेब (World Wide Web)

Dr Awadhesh K. Yadav (Assistant Professor)     अक्टूबर 20, 2024    

इंटरनेट पर वर्ल्ड वाइड वेब प्रयोग कर विविध जानकारी प्राप्त की जा सकती है। संक्षेप में इसे WWW या ‘वेब’ कहा जाता है। इसका उपयोग कर इंटरनेट उपभोक्ता उन वेब पेजों को आसानी से देख सकते हैं जिनमें टेक्स्ट, तस्वीर, वीडियो तथा अन्य मल्टीमीडिया होता है। इस तकनीकी को स्विट्जरलैंड के कम्प्यूटर वैज्ञानिक जॉन बर्नर्स-ली ने 25 दिसंबर, 1990 को विकसित किया, जिन्हें टिम बर्नर्स के नाम से भी जाना जाता है।  8 जून, 1955 को ब्रिटेन में जन्मे टिम बर्नर्स ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान हैकिंग के आरोप में पकड़े गये थे। स्वीट्जरलैंड स्थित यूरोपियन नाभकीय अनुसंधान संगठन में नौकरी के दौरान उन्होंने देखा कि अलग-अलग कम्प्यूटर में अलग-अलग तरह की सूचनाएं हैं। तभी उनके मन में विचार आया कि- सभी सूचनाओं को एक साथ सभी कम्प्यूटरों पर क्यों नहीं देखा जा सकता है? 

टिम बर्नर्स ने ‘इंफो डॉट सीईआरएन डॉट सीएच’ नाम से पहला इंटरनेट सर्वर बनाया, जो लालफीताशाही के चलते दुनिया के सामने नहीं आ सका और गुमनामी के अंधेरे में खो गया। इसके बावजूद टिम का हौसला कम नहीं हुआ और उन्होंने इंटरनेट कम्यूनिटी की दिशा में प्रयास जारी रखा। अंततः सन् 1991 में उनकी मेहनत सफल हुई। उनके द्वारा तैयार किया गया वर्ल्ड वाइड वेब ब्राउजर और इंटरनेट सर्वर दुनिया के सामने आ गया। तब यूरोपियन नाभकीय अनुसंधान संगठन ने दोनों पर अपना अधिकार जताया, क्योंकि उसकी कम्पनी में टिम बर्नर्स कार्यरत थे। 30 अप्रैल, 1993 को वर्ल्ड वाइड वेब ब्राउजर और इंटरनेट सर्वर तकनीकी की विश्वव्यापी उपयोगिता को देखते हुए WWW को अपने अधिकार से मुक्त करना पड़ा।   

इस तकनीकी से उपभोक्ताओं को जहां सूचना सम्प्रेषण का बेहतर माध्यम मिला, वहीं इंटरनेट पर सूचनाओं का भंडार आ गया। 24 मई, 1994 को यूरोपियन नाभकीय अनुसंधान संगठन ने वर्ल्ड वाइड वेब पर पहली कॉन्फ्रेंस आयोजित की, जिसमें टिम बर्नर्स ने इंटरनेट का दुरूपयोग रोकने के लिए एक संगठन बनाने की मांग रखी। परिणामतः जुलाई 1994 में ‘मैसाच्युसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी’ (MIT) ने संगठन बनाने की मेजबानी की। यूरोप में यूरोपियन नाभकीय अनुसंधान संगठन और अमेरिका में MIT को इस संगठन का मुख्यालय बनाया गया। इसका उद्देश्य वेब तकनीकी और सुविधाओं को बेहतर बनाना और दुरूपयोग रोकना है। हालांकि बाद में यूरोपियन नाभकीय अनुसंधान संगठन ने स्वयं को इस संगठन से अलग कर लिया, तब फ्रांस के ‘नोनल इंस्टीट्यूट फॉर रिसर्च’ को ‘कम्प्यूटर साइंस एण्ड कंट्रोल’ का नया मुख्यालय बनाया गया। वर्ल्ड वाइड वेब का कार्यालय अमेरिका के वर्जीनिया में है। किसी भी साइट को खोलने के लिए उस पते की जानकारी कूटभाषा में इस कार्यालय तक पहुंचानी पड़ती है, जो उस http (हाइपर टेक्स्ट ट्रांसफर प्रोटोकॉल) के माध्यम से जाती हैं।

ग्रामीण श्रोता कार्यक्रम (Rural Audience Programmes)

Dr Awadhesh K. Yadav (Assistant Professor)     अक्टूबर 20, 2024    

 आकाशवाणी का एक विशेष अनुभाग ग्रामीण श्रोताओं के लिए कार्य करता है। इसके लिए आकाशवाणी के सभी केंद्रों पर खेती गृहस्थी एकांश नामक यूनिट है। इस यूनिट का कार्य अपने कार्यक्रमों के माध्यम से ग्रामीण श्रोताओं के लिए उपयोगी जानकारी पहुंचाना है। इसके लिए एकांश में कृषि के अनुभवी और प्रशिक्षित व्यक्तियों की नियुक्ति की जाती है। इस एकांश को अपने प्रसारण क्षेत्र में आने वाले कृषि अधिकारियों, कृषि महाविद्यालयों के विशेषज्ञों, अनुभवी किसानों आदि के माध्यम से जानकारी एकत्र कर श्रोताओं तक पहुंचाने की जिम्मेदारी भी सौंपी गई है। यह एकांश केंद्र व प्रदेश सरकार द्वारा संचालित ग्रामीण विकास कार्यक्रमों की विस्तारपूर्वक जानकारी भी श्रोताओं तक पहुंचाने का कार्य करता है। किसानों व ग्रामीणों के लिए गोष्ठियों का आयोजित करता है। समय-समय पर ऐसी चौपाल लगाता है, जहाँ अधिकारियों और विशेषज्ञों के साथ बैठकर ग्रामीण अपनी समस्याओं से अवगत कराते हैं तथा समाधान के लिए विचार-विमर्श करते हैं। इस दौरान मनोरंजक वातावरण बनाने के लिए गीत-संगीत भी बजाया जाता है। 

इनके अतिरिक्त स्टूडियो में बैठकर कृषि वैज्ञानिकों और अनुभवी किसानों से श्रोताओं द्वारा भेजे गये प्रश्नों का निराकरण करने के साथ ही उनसे साक्षात्कार के माध्यम से ही उनसे नवीन तकनीकी आदि के बारे में उपयोगी जानकारी प्राप्त की जाती है। इस एकांश के प्रसारण के अधिकतर नाम बदलते रहे। इन्हें कभी ‘चौपाल‘, कभी किसान भाइयों के लिए कभी ‘चले गांव की ओर‘ आदि नाम दिये गये। आजकल अधिकतर केन्द्र इसे खेती-गृहस्थी के नाम से प्रसारित करते रहे है।

ग्रामीण श्रोताओं के लिए तैयार प्रत्येक कार्यक्रम को अपनी पहचान के लिए एक संकेत घुन होती है, श्रव्य के रूप में श्रोताओं तक पहुँचती है। आकाशवाणी में किसानों एवं ग्रामीण वर्ग के श्रोताओं के लिए प्रसारण हेतु निश्चित कार्यक्रम के पहले प्रसारित होने वाली संकेत धुन में बैलगाड़ियों को चलने की ध्वनि का प्रवाह के साथ उस क्षेत्र की लोक धुन को सम्मिलित किया जाता है। यह धुन ग्रामीण श्रोता कार्यक्रम की पहचान है।

सन् 1965 में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा कृषि और शिक्षा मंत्रालय के सहयोग से खेती-गृहस्थी एकांश का प्रायोगिक तौर पर दस केन्द्रों से प्रारंभ किया गया। यह केन्द्र जालंधर, लखनऊ, कटक, रायपुर, गुना, हैदराबाद, बैंगलूर, तिरूचि, दिल्ली, पटना थे। वर्तमान में विज्ञापन सेवा केन्द्रों को छोड़कर लगभग सभी केन्द्र खेती-गृहस्थी एकांश पर काम करते हैं, जिनके कार्यक्रमों की गुणवत्ता के लिए अपेक्षित प्रसारण सामग्री का अभाव भी दिखाई देता है।

आकाशवाणी के कई केन्द्रों में जहां खेती-गृहस्थी एकांश अधिक सक्रिय है, वहीं किसी विशेष फसल के समय चक्र को ध्यान में रखकर विशेष प्रसारण श्रृंखला का आयोजन भी किया जाता रहा है। उदाहरण स्वरूप यदि गेहूं की खेती से सम्बन्धित प्रसारण की श्रृंखला प्रारंभ की जाती है, जिसमें कृषि विशेषज्ञों और कृषि वैज्ञानिकों के सहयोग से गेहूं की खेती के लिए भूमि की तैयारी और बुआई से लेकर कटाई व भण्डार तक संपूर्ण प्रक्रिया को श्रृंखलाबद्ध तरीके से प्रसारित किया जाता है।


रेडियो संगीत (Radio Music)

Dr Awadhesh K. Yadav (Assistant Professor)     अक्टूबर 20, 2024    

रेडियो पर प्रसारित कार्यक्रमों में संगीत की हिस्सेदारी लगभग 40 प्रतिशत होती है। शेष प्रसारण समाचार व उच्चारित शब्दों का होता है। संगीत प्रसारण के लिए भी समय का विभाजन है, जैसे- शास्त्रीय संगीत के लिए 30 प्रतिशत, सुगम संगीत के लिए 20 प्रतिशत, लोक संगीत के लिए 12 प्रतिशत, फिल्म संगीत के लिए 20 प्रतिशत और पाश्चात्य संगीत के लिए चार प्रतिशत। 

भारतीय संगीत की प्रतिष्ठित परंपरा के अनुसार शास्त्रीय संगीत के लिए परंपरागत प्रावधान है, जिसके तहत सुनिश्चित किया गया है कि शास्त्रीय संगीत को दिन में कब बजाया जा सकता है। रेडियो पर शास्त्रीय संगीत के प्रसारण के लिए 30 मिनट का समय सुनिश्चित किया गया है। शास्त्रीय संगीत को सजीव बनाए रखने में आकाशवाणी का महत्वपूर्ण योगदान है। आकाशवाणी में संगीत को सुरक्षित रखने और सम्मान प्रदान करने के लिए लगातार प्रयत्न होते रहे है। हिन्दुस्तानी व कर्नाटक शास्त्रीय संगीत को प्रोत्साहन देने के लिए 1952 से 1961 तक विभिन्न चरणों में योजनाएँ बनाकर क्रियान्वित किया गया। इसके तहत आकाशवणी के सभी केंद्रो पर स्वर परीक्षण समितियों के गठन का निर्णय लिया गया। ये समितियाँ हिन्दुस्तानी और कर्नाटक संगीत के लिए अलग-अलग बनाई गई। इनमें विशेषज्ञ संगीतकारों के साथ ही आकाशवाणी के अधिकारी को स्वर परीक्षण समिति में सम्मलित किया गया, जिसके सकारात्मक परिणाम देखने को मिले। स्थानीय केन्द्रों के स्वर परीक्षण के अतिरिक्त केन्द्रीय स्तर पर म्यूजिक ऑडिसन बोर्ड का गठन किया गया। यह व्यवस्था वर्तमान समय में भी लागू है। 

आकाशवाणी में शास्त्रीय संगीत का अपना महत्व है। शास्त्रीय संगीत के अंतर्गत गायन और वादन से संबंधित कलाकार स्वर परीक्षण समिति के समक्ष विभिन्न राग-रागनियों पर आधारित प्रस्तुतियाँ देते है। स्वर, लय और ताल में खरे उतरने पर उन्हें योग्य घोषित किया जाता है।


बुधवार

फोन-इन कार्यक्रम (Phone-in Programmes)

Dr Awadhesh K. Yadav (Assistant Professor)     अक्टूबर 09, 2024    

रेडियो पर प्रसारित होने वाला फोन-इन कार्यक्रम श्रोताओं की भागीदारी का सर्वसुलभ कार्यक्रम है। इस कार्यक्रम के माध्यम से आकाशवाणी केन्द्र में बैठे विशेषज्ञ से श्रोताओं का सीधा सम्पर्क स्थापित हो जाता है और वे न केवल प्रश्न पूछ सकते हैं, बल्कि सीधी बातचीत भी कर सकते हैं। इस व्यवस्था में श्रोता अपने प्रश्न कार्यक्रम से थोड़ा पहले रिकार्ड करा सकता है। विशेषज्ञों को इन प्रश्नों को सुना दिया जाता है और विशेषज्ञ उनका उत्तर दे देते हैं। इस प्रकार प्रश्न तथा उत्तर साथ-साथ प्रसारित कर दिए जाते हैं।

प्रश्नों को पूर्व में रिकार्ड कर लेने पर यह सुविधा रहती है कि हम प्रश्नों का जायजा ले सकते हैं और अनावश्यक तथा विवादास्पद अंशों को संपादित किया जा सकता है। कभी-कभी सीधे प्रश्नों में शरारती तत्त्व बाधा उत्पन्न कर सकते हैं। साधारण श्रोता प्रश्न तथा उत्तर को एक साथ सुन सकता है तथा जानकारी प्राप्त कर सकता है। आजकल कुछ उपकरणों के द्वारा प्रश्नों को सीधे भी पूछा जा सकता है। पूर्व में रिकार्ड करने की आवश्यकता नहीं होती। यह कार्यक्रम ग्रामीण क्षेत्रों में भी लोकप्रिय हो रहा है, क्योंकि वहाँ आज दूरभाष सेवाएं उपलब्ध है।

सार्वजनिक क्षेत्र के जितने भी विषय हो सकते हैं उन सभी के संबंध में फोन-इन कार्यक्रम प्रसारित किए जाते हैं। विद्युत प्रदाय, जन प्रदाय, दुग्ध प्रदाय, स्वच्छता तथा सफाई, दूरभाष सेवाएं, रेल सुविधाएं, यातायात सेवाएं, स्वास्थ्य एवं चिकित्सा सेवाएं, पुलिस सेवा, शिक्षा सुविधाएं, नगर निगम, आयकर विभाग, सड़क अवस्था, सामाजिक सुरक्षा, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, महिला उत्पीड़न, मानवाधिकार, ग्रामीण विकास, खेल सुविधाएं, नागरिक आपूर्ति, आम चुनाव, रसोई गैस आपूर्ति, प्राकृतिक आपदाएं, राहत कार्य, उद्योग-व्यापार समस्याएं, भवन-निर्माण बोर्ड, आदि विषय इसके अंतर्गत शामिल किए जा सकते हैं।

इन विषयों के अलावा जन-जागरण तथा जनचेतना संबंधी अनेक विषयों को इस कार्यक्रम में शामिल किया जाता है। सहकारी संस्थानों और सार्वजनिक महत्त्व की सेवाओं को अधिक महत्त्व दिया जाता है तथा इन विषयों को बार-बार उठाया जाता है। इन प्रसारणों में रेडियो माध्यम पर श्रोताओं का विश्वास बढ़ा है तथा इस माध्यम को जन समस्याओं को सुलझाने का कारगर मंच माना जा रहा है। अब रेडियो मात्र मनोरंजन का साधन नहीं है वरन् जीवन का एक अंग बन चुका है। 

पिछले कुछ वर्षों में इन्टरनेट की सुविधा के कारण माध्यमों को द्विपक्षीय बनाने में सहायता प्राप्त हुई है तथा जनता और सरकार में सीधा संवाद स्थापित करने में भी सफलता प्राप्त हुई है, लेकिन निकट भविष्य में उपग्रह संचार सेवा और माईक्रोवेव की और अधिक सुविधाएं उपलब्ध होने के कारण गांव तक आसानी से माध्यमों को जोड़ा जा सकेगा। कन्वर्जेस तकनीक के आने के पश्चात् अनेक माध्यमों को एक ही श्रोता से नियंत्रित किया जा सकेगा तथा प्रसारण का लाभ अधिक आसानी से उपलब्ध हो सकेगा। 

आजकल अनेक निजी प्रसारण चैनल श्रोताओं को लुभाने के लिए अनेक मनोरंजक कार्यक्रम प्रसारित कर रहे हैं तथा विज्ञापनों द्वारा अपना बाजार विकसित करने की चेष्टा कर रहे हैं। रेडियो अभी भी एक जनसेवा है तथा आम आदमी के विकास की, पक्षधर है। इस सेवा में यदि गुणात्मक परिवर्तन किए जाएं तो फिर से रेडियो की वापसी संभव है। ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी रेडियो सर्वाधिक लोकप्रिय माध्यम है, क्योंकि यह सस्ता और सर्वसुलभ है। किसान खेत, खलिहान, कुएं या ट्यूबवेल पर बैठकर भी सुन सकता है। विद्युत आपूर्ति के अभाव में भी इस सेवा का लाभ लिया जा सकता है। निजी क्षेत्र में अनेक कम्पनियों ने एफ.एम. रेडियो प्रारम्भ किए हैं, जहां श्रोताओं के साथ दूरभाष से वार्तालाप किया जाता है तथा मनोरंजक कार्यक्रम प्रसारित किए जाते हैं।

अभी फोन-इन कार्यक्रम में अनेक सुधार हो रहे हैं तथा श्रोता अपनी पसंद के गीत तथा कार्यक्रम सुन सकते हैं। आजकल विविध भारती तथा प्राइमरी चौनल से भी ‘फोन करें गीत सुनें‘ कार्यक्रम प्रसारित किया जाता है और एफ.एम. रेडियो से निरंतर फोन द्वारा श्रोताओं से संपर्क स्थापित किया जाता है। फिर भी श्रोताओं की भागीदारी बढ़ाने वाले कार्यक्रमों का सबसे बड़ा लाभ यह हुआ है कि श्रोताओं में आत्म-विश्वास जगा है तथा गांव-खेतों में भी लोग मोबाइल लिए हुए देखे जा सकते हैं। हर श्रोता, रेडियो से प्रसारित इन कार्यक्रमों में भाग लेना चाहता है तथा अपनी भागीदारी से वह अपने आप को महत्त्वपूर्ण व्यक्ति समझता है। फरमाइशी कार्यक्रमों का क्षेत्र भी बढ़ गया है तथा अब श्रोताओं को फरमाइश के लिए महीनों तक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। अब श्रोता निष्क्रिय नहीं रहना चाहता, क्योंकि उसकी बात सुनने के लिए एक माध्यम है। रेडियो समाज में एक हेल्प लाईन का कार्य करने के लिए फिर से चर्चा में है और नए आयामों के साथ श्रोता की मांग पूरी करने में लगा है।


सोमवार

कैमरा के तत्व (Elements of Camera)

Dr Awadhesh K. Yadav (Assistant Professor)     अक्टूबर 07, 2024    

जिस प्रकार एक ड्राईवर के लिए अपने कल-पुर्जो की जानकारी होना आवश्यक है, ठीक उसी प्रकार फोटो पत्रकार के लिए भी अपने कैमरे के सभी जानकारी होना जरूरी है। पत्रकारिता के मौजूदा समय में फोटोग्राफी का विशेष महत्व है, क्योंकि वर्तमान भागदौड़ भरी जिंदगी में बहुत से लोगों को समाचार पत्रों में प्रकाशित फोटोग्राफ से घटना-दुर्घटना की भयावहता की जानकारी मिलती है। मौजूदा बाजार में सैकड़ों कम्पनियों के सस्ते-मंहगे कैमरा मौजूद है। सभी कैमरों में निम्नलिखित तत्व मिलते हैं:-

  1. व्यू फाइंडर (View finder)
  2. लेंस (Lens)
  3. शटर (Shutter)
  4. फिल्म चैम्बर (Film Chamber) औरपी
  5. लाइट मीटर (Light Meter)

1. व्यू फाइंडर (View finder) : किसी भी कैमरे में फोटोग्राफी से पहले व्यूू फाइंडर की मदद से दृश्य को देखा जाता है। इससे यह आभास हो जाता है कि दृश्य का क्षेत्र कितना है। व्यू फाइंडर प्रत्येक कैमरे में लगा होता है। कैमरा ओबस्क्योरा के आविष्कार के बाद व्यू फाइंडर के बारे में कई आवष्किार किये गये। विभिन्न प्रकार के कैमरे में अलग-अलग प्रकार के व्यू फाइंडर लगे होते हैं। कुछ बाक्स कैमरे में सीधे आंख के स्तर के व्यू फाइंडर लगे होते हैं। टविन लैंस और सिंगल लैंस कैमरा में धुंधले शीशे और दर्पण वाले व्यू फाइंडर होते हैं। सिंगल लेंस रिफ्लैक्स कैमरा में प्रिज्म, धुंधले और दर्पण व्यू फाइंडर होते हैं।

2. लैन्स (Lens) : यह कैमरे का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है। कैमरे से फोटोग्राफी के दौरान हमारी सबसे पहले विषय वस्तु को देखना होता है, जो कैमरे में लगे लैन्स के द्वारा ही संभव है। इसलिए लैंस कैमरे का सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा होता है। लैन्स प्रायः शीशे का बना एक पारदर्शी माध्यम है, जो दोनों तरफ से वक्राकार होता है और प्रकाश की किरणों को परिवर्तित करता है। इसका प्रयोग न केवल कैमरे में बल्कि एंलार्जर और प्रोजैक्टर में भी किया जाता है। इसी पर विषय-वस्तु के बिम्ब का सही होना, न होना निर्भर करता है। लैन्स की वक्रता गोलाकार, बेलनाकार या अनुवृत्ताकार होती है, परंतु फोटोग्राफी में प्रयोग किया जाने वाला लैंस एक तरफ से अवश्य गोलाकार होता है। लैंस मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं-उत्तल और अवतल।

3. शटर (Shutter) : कैमरे का तीसरा मुख्य भाग शटर है। शटर एक दरवाजा की तरह होता है, जो लैन्स और फिल्म के बीच कार्य करता है। यह फिल्म पर पड़ने वाले प्रकाश को नियंत्रित करता है। शटर के माध्यम से प्रकाश तभी कैमरे के अंदर जाता है, जब बटन दबाकर शटर को खोला जातस है। शटर को ऐसे बनाया जाता है कि यह कैमरा प्रयोग करने वाले की इच्छा के अनुरूप उतने समय तक प्रकाश को आने दे, जितनी देर तक वह चाहता है। परंतु साधारण कैमरे में शटर की समय सीमा पूर्व निर्धारित होती है। इसे परिवर्तित नहीं किया जा सकता है।

4. फिल्म चैम्बर (Film Chamber) : यह कैमरे का चौथ महत्वपूर्ण भाग है। कैमरे में फिल्म चैम्बर के मुख्यतः दो भाग होते हैं। पहले भाग में खाली फिल्म लगी है। फोटोग्राफी के बाद वह दूसरे भाग में लिपट जाती है। प्रांरभिक कैमरों में फोटोग्राफी के बाद फिल्म को मैनुअल तरीके से आगे बढ़ाया जाता था। बाद में, ऑटोमैटिक तरीके से फोटोग्राफी के बाद फिल्म चैम्बर के दूसरे भाग में स्वतः जाने लगा। डिजिटल कैमरों में फिल्म चैम्बर नहीं होता है। इसके स्थान पर एसडी या मेमोरी कार्ड लगाने की व्यवस्था होती है।

5. लाइट मीटर (Light Meter) : यह एक यांत्रिक उपकरण है, जिसका उपयोग कैमरे की लाइट को मापने के लिए किया जाता है। लाइट मीटर का उपयोग फोटोग्राफी के दौरान फिल्म पर पड़ने वाले प्रकाश की गति को मापने के लिए किया जाता है। कैमरे में डिजिटल तथा एनलॉग किस्म के लाइट मीटर लगे होते हैं, जो एक निश्चित प्रकाश व्यवस्था में कार्य करता है।



कैमरा (Carema)

Dr Awadhesh K. Yadav (Assistant Professor)     अक्टूबर 07, 2024    

प्रकाश के माध्यम से वास्तविक चित्र बनाने का मुख्य साधन है- कैमरा। इसकी कल्पना 14वीं शताब्दी में तब की गई, जब एक व्यक्ति ने अंधेरे कमरे में वाह्य दृश्य का विलोम (उल्टा) प्रतिबिम्ब देखा। यह प्रतिबिम्ब दरवाजे में बने एक छोटे से छिद्र से गुजरते प्रकाश के कारण बन रहा था। यहीं से प्रारंभ हुई कैमरे के विकास की कहानी। इस प्रविधि का कैमरा आब्स्क्यूरा (Camera Obscura) के निर्माण में किया गया। कैमरा (Camera) यूनानी शब्द (Kameraa) से बना है, जो कैमरा आब्स्क्यूरा (Camera Obscura) का संक्षिप्त नाम है। लैटिन भाषा में कैमरा आब्स्क्यूरा (Camera Obscura) का शब्द का शाब्दिक अर्थ अंधेरा कमरा होता है।

प्रारंभ में कैमरा का कुछ कलाकारों द्वारा सफेद कागज पर बन रहे चित्र को पैंसिल या रंगों की सहायता से बनाने के लिए उपयोग किया। बाद में जोसफ नाइसफोर नाइप्स ने सफेद कागज पर बन रहे चित्र के आगे रसायनों से युक्त एक शीट रख दिया, जिस पर चित्र का फोटोग्राफ स्थाई तौर पर अंकित हो गया। इस प्रकार स्पष्ट हुआ कि कैमरा फोटोग्राफी का महत्त्वपूर्ण उपकरण है।

1569 में  इटली के डेलापार्ट नामक व्यक्ति ने बाहर के बिम्ब को साफ और सूक्ष्म बनाने के लिए दरवाजे के छिद्र में एक लैंस लगाया। 1686 में जोहान जॉन ने एक ऐसे यंत्र का निर्माण किया जिसमें एक लैंस और एक दर्पण लगा हुआ था। इसमें बिना बिम्ब के सीधा दिखाई देता था। इसी सिद्धांत पर आधुनिक सिंगल लैंस रिफलैक्स कैमरा बना।

वर्तमान समय में अनेक प्रकार के कैमरे उपलब्ध हैं, जैसे- सिंगल लैन्स रिफ्लैक्स (SLR), टविन लैन्स रिफ्लैक्स (TLR) या इन्सटैंट कैमरा (Instant Carema), कैमरा (compact camera) इत्यादि, जिसके चलते लोग अक्सर पूछते हैं कि इनमें से कौन स कैमरा अच्छा है। आधुनिक ऑटो फोकस कैमरा (Auto Focus Camera) आने के बाद पूछा जाने लगा है कि मैन्यूअल (Manual) कैमरा सही है या फिर आधुनिक ऑटो फोकस कैमरा। वास्तव में, प्रत्येक कैमरे के अंदर यदि कुछ गुण है तो कुछ अवगुण भी हैं। प्रत्येक कैमरे में एक सिरे पर लैन्स और दूसरे पर प्रकाश ग्रहणशील फिल्म लगाने की व्यवस्था होती है। कैमरे को या तो धातु या फिर किसी सिन्थैटिक (Synthetic) पदार्थ से सांचे में ढाल कर बनाया जाता है। इसका आकार देते समय इस बात पर विशेष ध्यान रखा जाता है कि फोटोग्राफी के दौरान कैमरा पकड़ने में सुविधा जनक हो। 

सामान्यतः कैमरा में दो कक्ष होते हैं, एक में फिल्म डाली जाती है जो फोटो खींचते समय दूसरे कक्ष में लिपटती जाती है, परन्तु दोनों कक्षों के बीच प्रकाश से प्रतिबिम्ब बनने की जगह होती है। इस फिल्म के पीछे एक प्लेट लगी होती है, जिसे कैमरा में फिल्म डालने के बाद बंद कर दिया जाता है। इससे फिल्म सीधी रहती है। कैमरे में ऐसा प्रावधान होता है कि चित्र खींचने के बाद जब फिल्म आगे की जाती है तो फिल्म में चित्र का नम्बर नजर आता है। आधुनिक कैमरों में हर चित्र खींचने के बाद फिल्म स्वयं आगे चलती रहती है और फ्रेम का नम्बर बदलता रहता है। कुछ कैमरों में कम रोशनी में फोटो खींचने के लिए फ्लैश पहले से ही लगा होता है। आधुनिक कैमरों में कुछ ऐसे कैमरे भी हैं, जिनमें ‘फिल-इन-फ्लैश’ का प्रावधान होता है। इसके अतिरिक्त भी फ्लैश लगाने की सुविधा होती है। डिजिटल कैमरे में फिल्म लगाने की न तो जगह होती है और न तो जरूरत। इसमें फिल्म के स्थान पर एसडी कार्ड या मेमोरी कार्ड का उपयोग किया जाता है, जिसका बार-बार उपयोग किया जा सकता है।

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