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मंगलवार

वेब 3.0 (Web 3.0)

Dr Awadhesh K. Yadav (Assistant Professor)     नवंबर 05, 2024    

 सूचना प्रौद्योगिकी के विस्तार की अनंत संभावनाओं को देखते हुए बड़े ही आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है कि आने वाली पीढ़ी का मीडिया अभूतपूर्व होगा। वेब की दो पीढ़ी विकसित हो चुकी है- वेब 1.0 और वेब 2.0। वर्तमान समय में वेब 3.0 की कल्पना की जा रही है। एक अनुमान के मुताबिक वेब 3.0 इतनी आधुनिक होगी कि इसके सामने आज की तकनीक और इंटरनेट स्पीड कुछ भी नहीं होगी।

अपने दौर का सर्वाधिक लोकप्रिय अमेरिकी टीवी धारावाहिक ‘स्टार ट्रेक’ में भविष्य की न्यू मीडिया के नजारों को देखा जा चुका है। क्या आने वाला मीडिया ‘स्टार ट्रेक’ जैसी गल्प और कल्पनाओं को साकार कर देगा। इसका जवाब फौरन हां में भले ही न दिया जा सके, लेकिन इसे बिल्कुल न कहकर नकारा भी नहीं जा सकता है। 

संभवतः इन्हीं कारणों से वर्ल्ड वाइड वेब के जन्मदाता टिम बर्नर्स ली ने सिमैंटिक वेब की कल्पना की होगी। इस शब्दावली के जन्मदाता भी टिम बर्नर्स ली ही हैं। उन्होंने इसे वेब 3.0 का एक महत्त्वपूर्ण घटक माना है। टिम बर्नर्स ली का कहना है कि सिमैंटिक वेब ही आगामी न्यूनता की ओर ले जाएगा। अतः वेब 3.0 को समझने से पहले सिमंटिक वेब को जानना जरूरी है।

सिमैटिक का सामान्य अर्थ शब्दार्थ विज्ञान है। यह एक ऐसी प्रक्रिया जिसमें अर्थ का निष्पादन किया जाता है। इसे समझने की प्रक्रिया को सिमेंटिक कहा जाता है। वेब के संदर्भ में सिमेंटिक का अर्थ है वर्ल्ड वाइड वेव का ऐसा विस्तार है, जहां लोग एप्लीकेशंनों और वेबसाइटों की परिधियों से आगे जाकर कंटेंट को शेयर कर सकते हैं। इसे काल्पनिक विजन माना जाता है। सिमैंटिक वेब को डाटा का वेब (वेब ऑफ डाटा) भी कहा जाता है। विशेषज्ञों का मानना है कि यह वेब गतिविधि को नया बदलाव देगा। आज कई सिमैंटिक तकनीकें बनाई जा रही हैं, कई एप्लीकेशनों की खोज की जा रही है, ताकि वेब को और सहज, सुगम और सरल बनाया जा सके। ऐसा भी कहा जा सकता है कि सिमैंटिक वेब, कंप्यूटर को मनुष्य मस्तिष्क के समतुल्य करने की एक शुरुआत है।

टिम बर्नर्स ली, जेम्स हैंडलर और ओरा लासिला ने मई 2001 में मशहूर विज्ञान पत्रिका साइंटिफिक अमेरिकन में सिमैंटिक वेब के बारे में सबसे पहले अपना शोध प्रकाशित किया था। टिम और अन्य के मुताबिक, ‘‘सिमैंटिक वेब, मौजूदा वेब का एक विस्तार है जिसमें सूचना को एक सटीक परिभाषित अर्थ दिया गया है, जिसमें कंप्यूटर ज्यादा कारगर है और जहां लोग सहयोग के साथ काम कर सकते हैं।‘‘

टिम बर्नर्स ली ने सिमैंटिक वेब को परिभाषित करते हुए कहा कि यह एक डाटा वेब है जो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से मशीनों द्वारा परिवर्तित और परिष्कृत किया जा सकता है। उनके मुताबिक यह वेब एक साथ संदर्भ और सामग्री (कॉन्टेक्स्ट एंड कंटेंट) को पढ़ने और समझने की क्षमता वाला होगा।

यह सामग्रियों को फिल्टर कर सकेगा और यूजर के समक्ष सिर्फ वही सामग्री पेश करेगा जो सबसे प्रासंगिक हो, सबसे प्रासंगिक सोर्स से आई हों और सबसे ताजा हो। इस काम के लिए यूजर को अपनी सामग्री के संदर्भ वाली सूचना मुहैया करानी होगी, जिसका कि एक तरीका टैगिंग है।

कुल मिलाकर विचार ये है कि वेब, यूजर के इनपुट और कंटेंट के चरित्र-चित्रण का इस्तेमाल करेगा जो आगे चलकर नतीजतन सिमैंटिक और अर्थ आधारित गुणात्मक सर्च को संभव बनाएगा। इसके लिए एक नए प्रोटोकॉल, आरडीएफ रिसोर्स डिस्क्रिप्शन फ्रेमवर्क पर वर्ल्ड वाइल्ड वेब कंजेटियम डब्ल्यूसी काम कर रहा है। इसी प्रोटोकाल के जरिए वेब की हर तरह की सूचना या डाटा को कोड किया जाएगा। इसमें एक समान भाषा विकसित की जाएगी जो गुणात्मक सर्च को संभव कर सकेगी। 


लाइट (Light)

Dr Awadhesh K. Yadav (Assistant Professor)     नवंबर 05, 2024    

मानव जीवन में लाइट का विशेष महत्व है। इसके बगैर जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है। मानव की आंख तभी देख पाती हैं, जब लाइट परिवर्तित होकर उस पर पहुंचता है। विभिन्न रंगों के रूप में लाइट किसी भी वस्तु से टकराकर आंख की पुतली से होकर रेटिना तक पहुंचती है। फिर रेटिना से बनने वाली तस्वीर संदेश के रूप में हमारे मस्तिष्क में उतर जाती हैं। इसी तकनीक पर फोटोग्राफी के दौरान कैमरा भी काम करता है। मानव की आंख और कैमरा की तुलना करने पर पता चलता है कि किसी दृश्य को देखने हेतु कैमरा की तुलना में मानव की आंख अधिक सक्षम होती है। रंगों की बारिकीया पकड़ना हो या रात के समय कम प्रकाश में देखना हो, कैमरे की तुलना में मानव की आंख कई गुना अधिक कारगर होती है। इसलिए एक बात हमेशा याद रखनी होती है कि लाइटिंग कैमरे के लिए की जाती है, मानव के आंख के लिए नहीं।


सामान्यतः हम अपने जीवन में लाइटिंग से परिचत होते हैं। हम अपने-अपने घरों में लाइट का उपयोग करते हैं, लेकिन लाइटिंग के सौंदर्य बोध की तरफ हमारा ध्यान कम ही जाता है। हम अपने शयनकक्ष में नाइट लैम्प लगाते हैं, लेकिन इसके उद्देश्य पर गंभीरता से नहीं सोचते हैं। रेस्टोरेंट में लाइट की मात्रा कम क्यों होती है? इस पर भी हमारा ध्यान नहीं जाता है। दीवाली के पर्व पर हम अपने घरों में लाइटिंग के जरिये खुशियों का प्रदर्शन करते है।

फोटोग्राफी में लाइटिंग के तीन उद्देश्य होते हैं। पहला-विषय वस्तु को प्रकाशवान करना, क्योंकि जब तक विषय वस्तु पर समुचित प्रकाश नहीं होगा, तब तक कैमरे में उसकी अच्छी फोटोग्राफी नहीं की जा सकती है। लाइटिंग के माध्यम से फोटोग्राफ में यह बताने का प्रयास किया जाता है कि कौन सा समय चल रहा है। फोटोग्राफ को बारीकी से देखने पर पता चलता है कि लाइट की मात्रा, रंग और दिशा बदलती रहती है। जैसे- सुबह और शाम के समय लाइट का रंग हल्का नारंगी होता है। इस दौरान छाया भी लम्बी बनती है। तीसरा- लाइट के मदद से फोटोग्राफ में विशेष प्रकार का भाव स्थापित किया जाता है। उपरोक्त आधार पर कहा जा सकता है कि लाइट एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके द्वारा विभिन्न लाइट स्रोतों को नियंत्रित करके किसी खास उद्देश्य के लिए इसका उपयोग किया जाता है।

इस प्रकार फोटोग्राफी में लाइट का विशेष महत्व है, क्योंकि जो विषय वस्तु हमें दिखाई देते हैं, जिसके पीछे लाइट ही होता है। लाइट के अभाव में फोटोग्राफी की कल्पना नहीं की जा सकती है। विषय वस्तु पर पड़ने वाला प्रकाश ही परावर्तित होकर लैंस के रास्ते से कैमरे में कैद हो जाता है। लाइट की सही व्यवस्था न होने पर कैमरा विषय वस्तु को ठीक प्रकार से नहीं देख पाता है और दृश्य की गुणवत्ता में गिरावट आती है। इसके साथ ही लाइट शॉट की कम्पोजिशन में एक महत्वपूर्ण तत्व होता है। लाइट के माध्यम से यह निर्धारित किया जा सकता है कि दृश्य में उपलब्ध विभिन्न तत्वों को कितना स्पष्ट या अस्पष्ट रिकोर्ड करना है। फोटोग्राफी में लाइट का प्रयोग करने का मुख्य कारण विषय वस्तु को प्रकाशमान करना होता है। कई बार विषय वस्तु को कलात्मक तरीके से दिखाने के लिए भी लाइट का प्रयोग किया जाता है। लाइट से ही निर्धारित होता है कि फोटोग्राफ में विषय वस्तु कैसे दिखाई देंगे। फोटोग्राफी में प्रयोग होने वाली लाइट निम्न प्रकार की होती है:-

डायरेक्ट और इनडायरेक्ट लाइट  (Direct and Indirect Light)

फोटोग्राफी के दौरान लाइट की समझ इस बात पर निर्भर करती है कि लाइट का स्रोत क्या है? लाइट दो मुख्य की होती है। पहला- डायरेक्ट लाइट, और दूसरा- इनडायरेक्ट लाइट। विषय वस्तु पर सीधे पड़ने वाली लाइट को डायरेक्ट लाइट कहते हैं। यह इतनी तेज होती है कि उसके विपरीत दिशा में विषय वस्तु का प्रतिबिम्ब बन जाता है। लाइट जितनी तेज होती है, प्रतिबिम्ब भी उसी अनुपात में गहरा होता है। लाइट का मुख्य स्रोत सूर्य है। यदि सूर्य की किरणें सीधे विषय वस्तु पर पड़ती हैं तो उसे डायरेक्ट लाइट कहते हैं। इसके अलावा हाईलोजन से भी विषय वस्तु पर सीधी लाइट डाली जाती है तो उसे भी डायरेक्ट लाइट कहते हैं। ऐसी लाइट में विषय वस्तु की सपाट छवि बनती है, जिसमें बहुत कम गहराई होती है। कई बार गहराई का पता ही नहीं चलता है। नाटकीय छवि बनाने के लिए भी डायरेक्ट लाइट का प्रयोग किया जाता है। 

इसके विपरीत जब विषय वस्तु पर लाइट सीधा नहीं पड़ती है तो उसे इनडायरेक्ट लाइट कहा जाता है। फोटोग्राफी के लिए इनडायरेक्ट लाइट को अच्छा माना जाता है, क्योंकि इसमें विषय वस्तु का प्रतिबिम्ब नहीं बनता है। स्टूडियो में फोटोग्राफी के दौरान डायरेक्ट लाइट को विभिन्न उपकरणों की मदद से इनडायरेक्ट लाइट में परिवर्तीत किया जाता है।

हार्ड और साफ्ट लाइट  (Direct and Indirect Light)

फोटोग्राफी में प्रयोग होने वाली लाइटों को दो प्रकार से वर्गीकृत किया जाता है। एक वह लाइट जो किसी एक दिशा में प्रकाश डालती है तथा दूसरा वह लाइट जो चारों तरफ होती है यानी जिसकी कोई दिशा नहीं होती है। जो लाइट किसी एक दिशा में प्रकाश डालती है, उसकी रोशनी काफी तेज होती है, जिसके चलते विषय वस्तु की छाया गहरी बनती है। इस प्रकार की लाइट को हार्ड लाइट कहा जाता है। इसके विपरित जिस लाइट की कोई दिशा नहीं होती और चारों तरफ फैली होती हैं और उसमें विषय वस्तु की छाया कम बनाती है। ऐसी लाइट को सॉफ्ट लाइट कहा जाता है। इन लाइटों को कई और नामों से भी जाना जाता है। जैसे- हार्ड लाइट को डायरेक्शनल लाइट कहा जाता है, क्योंकि इस लाइट की एक दिशा होती है और यह उस दिशा के विषय वस्तु को प्रकाशमान करती है। इसी प्रकार, सॉफ्ट लाइट को डिफ्यूज्ड लाइट कहा जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि इनकी कोई एक दिशा नहीं होती है और यह अपने आस-पास के सभी विषयों को एक समान प्रकाशमान करती है।

हार्ड लाइट को फोकस लाइट भी कहा जाता है, क्योंकि यह किसी विषय विशेष को फोकस करके प्रयोग की जाती है। किसी विषय को प्रकाश देने के उद्देश्य से इस लाइट का प्रयोग किया जाता है। सॉफ्ट लाइट को फ्लड लाइट भी कहा जाता है, क्योंकि यह किसी विषय को ध्यान में रखकर प्रयोग नहीं की जाती है, बल्कि पूरे क्षेत्र को एक समान प्रकाशमान करती है। दैनिक जीवन में प्रयोग की जाने वाली लाइट का विश्लेषण किया जाए तो सामान्य तौर पर कमरों व गलियों में प्रयोग की जाने वाली लाइट फ्लड लाइट होती है। टॉर्च या गाड़ियों में प्रयोग होने वाली लाइट फोकस लाइट होती है। इस प्रकार वीडियो कार्यक्रमों में प्रयोग की जाने वाली लाइट अपनी प्रकृति के अनुसार या तो हार्ड लाइट होती है या फिर सॉफ्ट लाइट।

हालांकि फोटोग्राफी के लिए प्रयोग होने वाली कई लाइट ऐसी भी होती हैं, जिन्हें फ्लड लाइट के रूप में भी प्रयोग किया जा सकता है और फोकस लाइट के रूप में भी। इन लाइटों में यह सुविधा होती है कि उन्हें पूरे क्षेत्र को प्रकाशमान करने के लिए प्रयोग किया जा सकता है तथा आवश्यकता पड़ने पर किसी विषय विशेष पर केन्द्रित करके भी इस्तेमाल किया जा सकता है।

थ्री-प्वाइंट लाइटिंग (Three-Point Lighting)

यह फोटोग्राफी के दौरान सर्वाधिक उपयोग होने वाली लाइटिंग सेट-अप है, जिसमें विषय वस्तु पर तीन तरफ से लाइट डाला जाता है। इसीलिए इसे थ्री-प्वाइंट लाइटिंग या त्रिकोण लाइटिंग कहा जाता है। थ्री-प्वाइंट लाइटिंग में विषय वस्तु को हाईलाइट करने के लिए की-लाइट का उपयोग किया जाता है। इससे उत्पन्न छाया को समाप्त करने के लिए फिल लाइट जलाई जाती है। इसके बाद, विषय वस्तु को बैकग्राउण्ट से अलग करने के लिए बैक लाइट का प्रयोग किया जाता है। इन लाइटों को त्रिकोण में उपयोग किया जाता है। विषय वस्तु के सामने क्रमशः की-लाइट और फिल लाइट का उपयोग किया जाता है, जबकि पीछे से बैकग्राउण्ट लाइट का इस्तेमाल किया जाता है। इस लाइटिंग सेट-अप से विषय वस्तु स्पष्ट रूप से उभरा हुआ दिखाई देता है। ज्यादातर फोटोग्राफी में इसी लाइटिंग तकनीकी का उपयोग किया जाता है। व्यवसायिक फोटोग्राफी में भी थ्री प्वाइंट लाइटिंग को महत्व दिया जाता है। थ्री प्वाइंट लाइटिंग को समझने के लिए क्रमशः की-लाइट, फिल लाइट और बैकग्राउण्ट लाइट को जानना जरूरी है।

  • की-लाइट: यह लाइट व्यवस्था की सबसे महत्वपूर्ण लाइट होती है। इस लाइट से ही विषय वस्तु को प्रकाशमान किया जाता है। फोटोग्राफी के दौरान कैमरे में कैद किये जाने वाले दृश्य पर इसी लाइट से प्रकाश डाला जाता है। कहने का तात्पर्य है कि फोटोग्राफी के लिए प्रकाश की व्यवस्था की-लाइट से की जाती है। ज्यादातर हार्ड लाइट को ही की-लाइट के रूप में प्रयोग किया जाता है। इस लाइट की तीव्रता काफी तेज होती है, जिसके चलते विषय वस्तु की परछाई उत्पन्न होती है। सामान्यतः इसे विषय वस्तु के सामने 45 डिग्री पर लगाया जाता है।
  • फिल लाइट: इस लाइट को की-लाइट से उत्पन्न होने वाली परछाई को समाप्त करने के लिए प्रयोग किया जाता है। फिल लाइट को की-लाइट के समानांतर कैमरे के दूसरी ओर लगाया जाता है। अर्थात यह लाइट का उपयोग विषय वस्तु की परछाई के विपरीत दिशा में किया जाता है, जिससे विषय वस्तु की छाया समाप्त हो जाती है। फिल लाइट के लिए ज्यादातर साफ्ट लाइट का प्रयोग किया जाता है। जब की-लाइट को विषय वस्तु पर डाला जाता है, तब उसके विपरीत दिशा में अंधेरा छा जाता है। इसे तकनीकी भाषा में फालऑफ कहते हैं। जितनी अधिक क्षमता की की-लाइट का उपयोग किया जाता है, उतना ही फालऑफ अधिक बनता है। इसे समाप्त करने के लिए फिल लाइट का उपयोग किया जाता है।
  • बैकग्राउण्ड लाइट: इस लाइट को विषय वस्तु के पीछे का दृश्य दिखाने के लिए किया जाता है। जिस विषय वस्तु के पीछे सेट लगा होता है, फोटोग्राफी के दौरान सेट को दिखाने के लिए बैकग्राउण्ड लाइट का इस्तेमाल किया जाता है। इसे बैक लाइट के विपरीत दिशा से सेट पर डाला जाता है। इस लाइट को उसी दृश्यों में प्रयोग किया जाता है जिसमें बैकग्राउण्ड दिखाना होता है। 

सोमवार

वेब 2.0 प्रौद्योगिकी: अर्थ एवं एप्लीकेशन्स (Web 2.0 technologies: Meaning and applications)

Dr Awadhesh K. Yadav (Assistant Professor)     नवंबर 04, 2024    

 21वीं सदी का दूसरा दशक इंटरनेट के बेतहाशा वृद्धि का दशक है। इंटरनेट का भारत समेत दुनिया के अधिकांश देशों में बोलबाला है। परिणामतः इंटरनेट के उपभोक्ताओं की संख्या में निरंतर बढ़ोत्तरी होती जा रही है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि इंटरनेट इस तरह से शक्तिशाली जनसंचार माध्यम बनता चला गया। हाई स्पीड ब्रॉडबैंड कनेक्शन और वाईफाई हॉट स्पॉट्स ने इंटरनेट को और अधिक मोबाइल व गतिशील बना दिया है। वेब के इस इंटरैक्टिव संसार को ‘वेब 2.0 प्रौद्योगिकी’ के नाम से जाना जाता है, जहां यूजर सूचनाएं न केवल अपलोड व डाउनलोड, बल्कि शेयर भी कर रहे हैं। 

वेब 2.0 शब्द सामान्यतः ऐसे वेब प्रोग्रामों/एप्लीकेशन्स के लिए प्रयुक्त होता है, जो पारस्पारिक क्रियात्मक जानकारी बांटने, सूचनाओं के आदान प्रदान करने, उपयोगकर्ता को ध्यान में रख कर डिजाइन बनाने और वर्ल्ड वाइड वेब से जोड़ने की सुविधा प्रदान करते हैं। वेब 2.0 के उदाहरणों में वेब आधारित कम्यूनिटी/समुदाय, होस्ट सर्विस, वेब प्रोग्राम, सोशल नेटवर्किंग साइट, वीडियो शेयरिंग साइट, विकी, ब्लॉग, तथा मैशप (दो या अधिक स्त्रोतों से जानकारी एकत्रित करके बनाया गया वेब पेज) व फोक्सोनोमी (टैगिंग) शामिल हैं। एक वेब 2.0 साइट अपने उपयोगकर्ताओं को अन्य उपयोगकर्ताओं के साथ वेबसाइट की सामग्री देखने या बदलने की अनुमति देती है, जबकि नॉन-इंटरएक्टिव वेब साइटों के द्वारा उपयोगकर्ता किसी जानकारी को केवल उतना ही देख सकते हैं, जितनी जानकारी उन्हें देखने के लिए उपलब्ध कराई जाती है।

यह शब्द 2004 में ओ रेली मीडिया वेब 2.0 सम्मेलन के कारण टिम ओ रेली से जुड़ा हुआ है। हालांकि इस शब्द से वर्ल्ड वाइड वेब के नए संस्करण का पता चलता है, यह किसी तकनीकी विशेषताओं को अपडेट करने का उल्लेख नहीं करता, अपितु एक एंड यूजर/उपयोगकर्ता और सॉफ्टवेयर डेवलपर द्वारा वेब को प्रयोग करने के तरीकों में आये बदलावों को परिलक्षित करता है। 

वर्तमान समय में कई बड़ी मीडिया कंपनियां इंटरनेट व्यवसाय में उतर आई। कई लोकप्रिय वेब ठिकानों का अधिग्रहण नामी कंपनियों द्वारा किया जा रहा है। 2005 में ‘न्यूज कॉरपोरेशन’ ने ‘माईस्पेस’ का अधिग्रहण किया। इसी प्रकार, 2006 में ‘गूगल’ ने ‘यूट्यूब’ को खरीदा। 

तेजी से विकसित होते इंटरनेट ने वेब 2.0 का रास्ता बनाया है। इंटरनेट के इस विकास का सारथी बना है ब्रॉडबैंड। ब्रॉडबैंड से आशय उस विधि और प्रणाली या उस तरीके से है जिसके जरिए हम ऐसे इंटरनेट से जुड़ते हैं जिसमें सूचनाएं त्वरित गति से अपलोड व डाउनलोड की जा सकती है। जैसे- पहले डायलअप मोडेम के जरिए इंटरनेट खुलता था, अब अत्यंत तीव्र स्पीड बाले बॉडबैंड कनेक्शन आ गए हैं, जिन्हें हम 3जी (थर्ड जनेरेशन) व 4जी के नाम से जानते हैं। कई कम्पनियां कुछ बड़े देशों में 5जी शुरू करने की तैयारी में हैं। तेज इंटरनेट कनेक्शन यानी शक्तिशाली ब्रॉडबैंड के जरिए बड़ी से बड़ी फाइलें चुटकियों में इंटरनेट पर भेजी जा सकती हैं। डायलअप मोडेम में कभी एक संगीत की या फिल्म की फाइल खोलने में घंटों लग जाते थे, कनेक्शन एरर आ जाता था, लेकिन अब ब्रॉडबैंड ने उसकी गति में असाधारण तेजी ला दी है। घंटों का काम अब मिनटों या सेकेण्डों में होने लगा है।

ब्रॉडबैंड के लिए उपभोक्ताओं को अपने फोन के जरिए सैटेलाइट मोडेम, एक केबल मोडेम या डिजिटल सब्स्क्राइबर लाइन (डीएसएल) की दरकार होती है। डेस्कटॉप के साथ अब तो इंटरनेट कनेक्शन जोड़ने के लिए फोन की बाध्यता भी नहीं रह गई है। मीडिया कंपनियां कंप्यूटर के सीपीयू के साथ लगे यूएसबी सॉकेट में फिट होने लायक डूंगल निकाल चुकी हैं।

ब्रॉडबैंड की दुनिया में बेतार अर्थात वायरलेस तकनीक के कारण क्रांति आयी। आज के वेब को वायरलेस वेब भी कहा जाता है। मोबाइल फोन के उपभोक्ताओं की संख्या पूरी दुनिया में तेजी से बढ़ी है। इसमें और विस्तार देखा जा रहा है, लिहाजा इंटरनेट को मोबाइल तकनीक के साथ सामंजस्य बैठाने योग्य बना दिया गया है। लैपटॉप कंपयूटर इस्तेमाल करने वाले ग्राहकों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। वाईफाई तकनीक यानी वायरलैस फिडेलिटी तकनीक ने इंटरनेट को बेतार कर दिया है। आने वाले दिनों में यह तय माना जा रहा है कि डूंगल या किसी और माध्यम की जरूरत इंटरनेट के लिए नहीं रहेगी। वह मोबाइल फोन के नेटवर्क की तरह कमोबेश हर जगह उपलब्ध रहेगा।

मोबिलिटी यानी गतिशीलता आज के जनसंचार की एक प्रमुख विशेषता बन गई है। वाईफाई इस दिशा में पहला कदम माना जाता है। इसके आगे वाईमैक्स तकनीक है जो बेतार इंटरनेट को समस्त महानगरीय, शहरी, उपशहरी क्षेत्रों तक सुगम बना देगा। वाईफाई डिवाइस को कनेक्ट करने के लिए मद्धम शक्ति (लो-पावर) रेडियो सिग्नलों का इस्तेमाल करता है, वहीं वाईमैक्स वाईफाई जैसा ही है लेकिन कम दूरी या डेढ़ सौ से दो सौ फुट की दूरी को कवर करने के बजाय 16 किलोमीटर जितनी लम्बी दूरियों को अपने दायरे में लेता है। इस तरह वाइमैक्स नेटवर्क आज के सेलफोन नेटवर्क की तरह व्यापक होगा। 

ब्रॉडबैंड की इसी व्यापकता ने वेब 2.0 को संभव किया है। विकसित होता इंटरनेट और इसका नया इंटरैक्टिव इस्तेमाल ही वेब 2.0 के रूप में जाता है। ये एक प्रारंभिक शब्दावली है और इसकी कई व्याख्याएं की जा सकती हैं लेकिन आमतौर पर दूसरी पीढ़ी यानी टूजी वेब सेवाओं को ये नाम दिया गया है। इसके तहत शेयरिंग और सहयोग आधारित सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटें (फेसबुक, ट्विटर आदि), यूजर जनेरेटड वेबसाइटें जैसे यू ट्यूब (इसकी थीम ही है-ब्रॉडकास्ट योअरसेल्फ यानी खुद को प्रसारित करो) और सामूहिक भागीदारी की विकिपीडिया जैसी वेबसाइटें आती हैं। डब्ल्यूएपी, वैप मोबाइल फोन जैसी वायरलेस तकनीक में इंटरनेट संभव हो गया है। मल्टीमीडिया मैसेजिंग सिस्टम (एमएमएस) मोबाइल फोन में उपलब्ध ऐसी तकनीक है जिसके जरिए टेक्स्ट, ऑडियो, वीडियो और तस्वीर सबकुछ भेजा जा सकता है। मोबाइल और सेलफोन-रेडियो, डिजिटल कैमरा, रिकॉर्डर, एमपी-3 प्लेयर, मूवी प्लेयर, वीडियोस्ट्रीमिंग डिवाइस, टीवी प्रोग्राम, जीपीएस, इंटरनेट-एक साथ कई रूपों में काम कर रहे हैं। 

पहली पीढ़ी के वेब यानी वेब 1.0 में यूजर कंटेंट को उपभोग करते थे लेकिन वेब 2.0 में यूजर कंटेंट बना रहे हैं और उसे परस्पर शेयर भी कर रहे हैं। वेब 1.0 स्थिर था, वेब 2.0 डायनेमिक यानी गतिशील है। ऐसा नहीं है कि वेब 2.0 की गतिशीलता और तीव्रता और बहुआयामिता सिर्फ उपभोक्ताओं, यूजरों और ऑडियंस के लिए ही है और सबकुछ जनहित में ही है। वेब 2.0 एक व्यावसायिक उपक्रम के रूप में बहुत सफल है और बड़ी-बड़ी कंपनियां वेब के इस नए अवतार से भली भांति परिचित हैं। वे वेबसाइटों पर विज्ञापनों के जरिए या सोशल मीडिया नेटवर्कों में अप्रत्यक्ष रूप से राजस्व बटोरेने के लिए उत्सुक रहती हैं। वेब का बाजार बहुत तीव्र गति से फल-फूल रहा है। इंटरनेट एडवर्टाइजिंग एक बड़ा बिजनेस बन गया है। अरबों-खरबों डॉलरों का कारोबार इंटरनेट से जुड़ा है।


बुधवार

बुलेटिन बोर्ड (Bulletin Board)

Dr Awadhesh K. Yadav (Assistant Professor)     अक्टूबर 23, 2024    

 बुलेटिन बोर्ड ऑनलाइन सार्वजनिक इलेक्ट्रॉनिक मंच है, जो अपने उपयोगकर्ताओं को संदेश पोस्ट करने तथा पढ़ने की अनुमति देता है। जब कोई सूचना को इंटरनेट के माध्यम से अनेक उपयोगकर्ताओं को एक साथ उपलब्ध करानी होती है, तो उसे बुलेटिन बोर्ड पर पोस्ट कर दिया जाता है। इस संदेश को बुलेटिन बोर्ड पर अनेक इंटरनेट उपयोगकर्ता देख-पढ़ सकते है। उन पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते है। प्रतिक्रिया भी अनेक उपयोगकर्ताओं को देखने, पढ़ने के लिए उपलब्ध होती है। एसोसिएशन फॉर क्वालिटेटिव रिसर्च ने इसे ऑनलाइन फ़ोरम के रूप में परिभाषित करता है, जिसमें शोध प्रतिभागी सवालों के जवाब देने, विचारों व जानकारियों को एक दूसरे के साथ साझा करने के लिए लॉग कर सकते हैं। इस प्रक्रिया में एक मॉडरेटर भी भाग लेता है, जो उपयोगकर्ताओं के बातचीत को निर्देशित करता है। मॉडरेटर सवालों का जवाब देने और प्रासंगिक डेटा को सुविधाजनक बनाने में मदद करता है। 

सामान्यतः एक बुलेटिन बोर्ड किसी एक विषय विशेष पर केंद्रीत होता है। इसका उद्देश्य सम्बन्धित विषय की समस्त सूचनाएं उपयोगकर्ताओं को उपलब्ध कराना होता है। इसे विश्व के किसी भी कोने में बैठकर देखा-पढ़ा जा सकता है। कुछ बुलेटिन बोर्ड पर अनेक उपयोगी सॉफ्टवेयर सशुल्क उपलब्ध होते हैं, तो कुछ पर निःशुल्क। इन्हें कोई भी उपयोगकर्ता अपने कंप्यूटर पर डाउनलोड कर सकता है।


रविवार

कैमरा के प्रकार (Types of Camera)

Dr Awadhesh K. Yadav (Assistant Professor)     अक्टूबर 20, 2024    

 कैमरा (Camera) फोटोग्राफी के दौरान उपयोग किये जाने वाला एक उपकरण है। फोटोग्राफी के लिए पीनहोल कैमरा, व्यू कैमरा, काम्पैक्ट कैमरा, टविन लैन्स रिफ्लैक्स कैमरा, सिंगल लैन्स रिफ्लैक्स कैमरा, इन्सटैंट कैमरा, डिजिटल कैमरा का उपयोग किया जाता है।  

  1. पिनहोल कैमरा (Pinhole Camera) : पिनहोल कैमरा एक साधारण कैमरा होता है, जिसमें लैंस नहीं लगा होता है। यह एक छोटे से एपर्चर (तथाकथित पिनहोल) की मदद फोटोग्राफी का कार्य करता है। अन्य शब्दों में कहें तो यह एक छोटे से छिद्र वाला लाइट-प्रूफ बॉक्स होता है, जिसमें दृश्य से प्रकाश एपर्चर के माध्यम से गुजरता है और बॉक्स की दूसरी दिशा में उल्टी छवि का निर्माण करता है। बाद में इसमें एक लैंस का उपयोग किया जाने लगा।

  2. व्यू कैमरा (View Camera: यह कैमरे बड़े आकार का होता हैं, जिसे स्टैण्ड पर लगाकर फोटोग्राफी का कार्य किया जाता है। व्यू कैमरा में व्यूफाइंडर नहीं होता है। फिल्म की स्थान पर एक व्यूफाइंडर स्कीन लगी होती है, जिसमें विषय-वस्तु या दृश्य को देखकर फोटोग्राफी की जा सकती है। इस कैमरे के व्यूफाइंडर में सीधे खड़े व्यक्ति का दृश्य उल्टा दिखाई देता है अर्थात सिर नीचे और पाँव ऊपर होता। ऐसे कैमरों को आगे और पीछे दोनों भागों में अलग-अलग संतुलित किया जाता है। व्यू कैमरा का सबसे बड़ा दोष यह है कि इसमें न तो बहुत नजदीक (Extreme Closeup) की फोटोग्राफी की जा सकती है और न तो इनमें क्षेत्रीय-गहनता (Depth of Field) का ही सही अनुमान लगाया जा सकता है।
  3. कॉम्पैक्ट कैमरा (Compact camera) : यह छोटे आकार का कैमरा होता है, जिसमें लैन्स बदले की सुविधा नहीं होती है। हालांकि कॉम्पैक्ट कैमरा में अच्छी किस्म का लैन्स लगा होता है। बाजार में ऐसे कॉम्पैक्ट कैमरा भी उपलब्ध है, जिनमें जूम लैन्स पहले से ही लगा होता है। इनकी क्षेत्रीय-गहनता (Depth of Field) तीन फीट से अन्तत तक होती है। इनमें अच्छी फोटोग्राफी की क्षमता होती है। बाजार में ऐसे कॉम्पैक्ट कैमरा भी उपलब्ध हैं, जिनमें एक्सपोजर को नियन्त्रित करने के लिए स्वः चालित प्रणाली लगी होती है। कुछ ऐसे मॉडल भी आ गये हैं, जिनमें पहले से लगी फ्लैश की सुविधा होती है। इसके अलावा फोटोग्राफ पर दिन और वर्ष मुद्रित करने की सुविधा भी होती है। कॉम्पैक्ट कैमरा उन व्यक्तियों के लिए उपयोगी है, जिन्हें कभी-कभार फोटोग्राफी करनी होती है। ऐसे कैमरे से फोटो खींचना बहुत आसान होता है। विषय वस्तु को व्यू फाइंडर में से देखते हुए बटन दबा कर फोटो खींची जा सकती है। एपरचर या शटर की गति को बदलने की आवश्यकता नहीं होती है। कॉम्पैक्ट कैमरों में फोटोग्राफी के दौरान उपभोक्ताओं को कुछ असुविधाओं का सामना भी करना पड़ता हैं। जैसे- इन कैमरों में अलग से फिल्टर, लैन्स, फ्लैश आदि लगाने की सुविधा नहीं होती है। इनसे खींचे गए फोटोग्राफ भी उतने शार्प नहीं होते, जितने कि किसी SLR कैमरा के होते हैं, क्योंकि कॉम्पैक्ट कैमरे का रैजोलूशन काफी कम होता है। कॉम्पैक्ट कैमरे का प्रयोग करके अच्छी फोटोग्राफी नहीं सीखी जा सकती, क्योंकि इसमें एपरचर, प्रकाश मीटर व शटर की गति का आवश्यकतानुसार अभ्यास करने की सुविधा नहीं होती है। पहले से लगे लैंस, फ्लैश आदि की एक निश्चित सीमा होती है। इनमें सीमित एपरचर की सुविधा के कारण तेज गति की फिल्म का प्रयोग किया जाता है। 
  4. टविन लैन्स रिफ्लैक्स कैमरा (TLR- Twin Lens Reflex Cameraa) : TLR कैमरा में दो लैन्स होते हैं, जिनकी फोकल लैन्थ एक समान होती है। दोनों लैन्स एक-दूसरे के ऊपर लगे होते हैं। इनकी धूरी समतल और एक-दूसरे के समानान्तर होती है। ऊपर वाले लैन्स का प्रयोग विषय वस्तु या दृश्य को देखते हुए कम्पोज करने के लिए किया जाता है, जबकि नीचे वाले लैन्स का प्रयोग फिल्म पर वास्तविक प्रतिबिम्ब बनाने के लिए किया जाता है। SLR कैमरे की तरह TLR कैमरे में भी ऊपर वाले लैन्स के माध्यम में खुले एपरचर के कारण प्रतिबिम्ब धुंधले शीशे की समतल स्क्रीन पर बनता है। यद्यपि टविन लैन्स रिफ्लैक्स कैमरा में 120 या 220 आकार की फिल्मों का प्रयोग किया जाता है, इनमें ऐसा प्रावधान भी किया जाता है कि 35 मि.मी. आकार की फिल्म प्रयोग की जा सके। अधिकतर टविन लैन्स रिफ्लैक्स कैमरों में लैन्स नहीं बदले जा सकते, परन्तु कुछ निर्माताओं ने ऐसे टविन लैन्स रिफ्लैक्स कैमरे बनाए हैं, जिनमें लैन्स बदले जा सकते हैं। रोलिफ्लैक्स, मैमिया और हैसलब्लैंड प्रसिद्ध टविन लैन्स रिफ्लैक्स कैमरे हैं।
  5. सिंगल लैन्स रिफ्लैक्स कैमरा (SLR- Single Lens Reflex Camera) : अपने छोटे आकार और अन्य गुणों के कारण सिंगल लैन्स रिफ्लैक्स (SLR) कैमरा बहुत ही लोकप्रिय है। इस कैमरे की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसके व्यू फाइंडर में हम  जैसा प्रतिबिम्ब देखते हैं, वैसा ही फोटोग्राफी खींचता है। SLR कैमरों में विषय वस्तु को देखने और फोटो को खींचने के लिए एक ही लैन्स का प्रयोग किया जाता है। यही कारण है कि इस कैमरे से हम उपयुक्त कम्पोजिशन बना सकते हैं और फोटो खींचते समय फोकस को शार्प करते हुए Depth of Field भी देख सकते हैं। लैन्स के पीछे लगा दर्पण (Plane Mirror) धुंधले शीशे की स्क्रीन पर प्रतिबिम्ब बनाता है और शटर का बटन दबाते ही शीशा ऊपर की ओर उठ जाता है। इस प्रकार, प्रकाश की किरणें फिल्म पर पड़ती हैं और दृश्य अंकित हो जाता है। आमतौर पर ऐसे कैमरों में यह दर्पण तब अपनी वास्तविक स्थिति में लौटकर आता है, जब फिल्म अगले फोटो के लिए आगे घूम जाती है, परन्तु मंहगे SLR कैमरों में ऐसा नहीं हैं। उनमें दर्पण ऊपर उठने के तुरन्त बाद अपनी वास्तविक स्थिति में लौट आता है। इन कैमरों में फोकल प्लेन शटर का प्रयोग किया जाता है। SLR कैमरे की एक मुख्य विशेषता यह है कि इसके लैन्सों को बदलने की सुविधा होती है। 
  6. पोलेराइड कैमरा (Polaroid Camera) : पोलेराइड कैमरों को इन्सटैंट कैमरा भी कहा जाता हैं क्योंकि इनके द्वारा खींचे गए फोटोग्राफ के प्रिंट्स को कुछ ही देर में प्राप्त किया जा सकता है। डार्करूम में जाकर फिल्म डेवलेप कर नेगेटिव बनाने और फोटोग्राफ प्रिंट बनाने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। पोलेराइड कैमरे का आविष्कार सन् 1947 में संयुक्त राज्य अमेरिका के डा. एडविन लैंड (Dr- Edwin Land) ने किया था। ऐसे कैमरे से ब्लैक एंड व्हाइट और रंगीन दोनों प्रकार के फोटोग्राफ खींचे जा सकते हैं। इनमें फ्लैश का प्रयोग किया जा सकता है। इनके द्वारा खींचे गए फोटोग्राफ गुणवत्ता की दृष्टि से परपरागत कैमरों के खींचे गये फोटोग्राफ की तरह नहीं होते हैं। फिर भी, इनसे जो फोटो खींचे जाते हैं वे स्पष्ट होते हैं। यह कैमरा कम समय में फोटोग्राफ खींचने के लिए अच्छा माना जाता है। पोलेराइड कैमरों में मिनिएचर लैब होता है, जो तुरंत फोटोग्राफ उपलब्ध कराता है।
  7. डिजिटल कैमरा (Digital Camera: डिजिटल कैमरे कंप्यूटर-क्रांति की देन हैं। फोटोग्राफी विधा में इन कैमरों के आगमन से हलचल मच गई है। फोटो पत्रकारिता के लिए डिजिटल कैमरे उपयुक्त होता है। इनमें न तो फिल्म लगाने की आवश्यकता होती है और न ही उसे डेवलप कराने की। क्लिक करने ही सामने का दृष्य कैमरे की मेमोरी में सेव हो जाता है, फिर उसे कंप्यूटर में डाउनलोड किया जा सकता है। मन चाहे दृश्य को ही कैमरे की मेमोरी में रखने और अनचाहे दृश्य को डीलीट (Delete) करने की सुविधा होती है। इसके प्रिंट की क्वालिटी भी आकर्षक होती है। डिजिटल कैमरों में दृश्य देखने के लिए व्यूफाइंडर के अलावा स्क्रीन भी लगा होती है। दृश्य को कंपोजिशन करने और अनावश्यक चीजों को निकालने की सुविधा उपलब्ध भी होती है। यह कैमरा काफी कीमती और रख-रखाव की दृष्टि सेे नाजुक होता है। इनमें कुछ ऐसे कैमरे होते हैं जिनमें फिल्म के स्थान पर फ्लापी लगाई जा सकती है। एक फ्लापी को भर जाने के बाद बदला भी जा सकता है। फ्लापी को कंप्यूटर में डाउनलोड करके प्रिंट आउट लिया जा सकता है। 

वर्तमान समय में सस्ते डिजिटल कैमरें भी बाजार में उपलब्ध हैं। इन कैमरों में लो (Low) लाइट में भी शॉट लेने की अद्भुत क्षमता होती है। लाइट के प्रति ये अत्यंत संवेदनशील होते हैं। जिस लाइट में SLR कैमरों से शॉट लेना संभव नहीं है, उसी लाइट में भी डिजिटल कैमरों से फोटोग्राफी की जा सकती है। लेकिन इनकी भी अपनी सीमाएं हैं। 

डिजिटल और परम्परागत फोटोग्राफी में अंतर

सुभाष सप्रू ने अपनी पुस्तक ‘फोटो पत्रकारिता’ में डिजिटल और पारंपरिक फोटोग्राफी के महत्त्व को निम्न प्रकार दर्शाया है-

  1. डिजिटल कैमरों में सी.डी. (Compact disk) पर प्रतिबिम्ब इलैक्ट्रॉनिक संकेतों से बनता है, जबकि पारंपरिक कैमरों में फिल्म पर लगे घोल (Emulsion) पर प्रकाश पड़ने पर रासायनिक प्रक्रिया होती है। 
  2. डिजिटल फोटोग्राफी में फोटो खींचने के उपरांत प्रतिबिम्ब को दर्ज करने तथा उसे स्टोर करने के लिए अलग-अलग स्थान होता है, जबकि पारंपरिक फोटोग्राफी में फिल्म एक्सपोज करने के बाद प्रतिबिम्ब को उसी स्थान पर स्टोर किया जा सकता है।
  3. डिजिटल कैमरों में प्रिंट बनाने से पहले नेगेटिव बनाने की आवश्यकता नहीं पड़ती, जबकि पारंपरिक कैमरों में प्रिंट बनाने के लिए नेगेटिव बनाना आवश्यक है।
  4. डिजिटल कैमरों में प्रिंट बनाने के लिए न ही रसायनों की आवश्यकता होती है और न ही डार्करूम की। जबकि पारंपरिक कैमरों में इसकी आवश्यकता अहम् होती है।
  5. डिजिटल फोटोग्राफी में रसायनों का प्रयोग न होने के कारण पर्यावरण के प्रदूषण की संभावना नहीं रहती जबकि पारंपरिक फोटोग्राफी में रसायनों का प्रयोग होने के कारण पर्यावरण प्रदूषित होता है।
  6. डिजिटल फोटोग्राफी में मैमोरी स्टिक या फ्लापी को कंप्यूटर में डालकर किसी फोटो इमेजिंग साफ्टवेयर की सहायता से फोटो में तब्दील करके उसका प्रिंट निकाला जा सकता है, जबकि पारंपरिक फोटोग्राफी में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। 
  7. डिजिटल कैमरों से कम प्रकाश में भी फ्लैश का प्रयोग किए बिना फोटो खींच सकते हैं, जबकि पारंपरिक कैमरों से कम प्रकाश में फोटो खींचना काफी कठीन कार्य है।
  8. डिजिटल कैमरो से खींचा गया फोटो यदि अच्छा न लगे तो उसे उसी समय मिटाकर उसके स्थान पर दोबारा खींच सकते हैं। जबकि पारंपरिक फोटोग्राफी में दोबारा फोटो खींचने के लिए नया नेगेटिव बनाना पड़ता है।


वर्ल्ड वाइड वेब (World Wide Web)

Dr Awadhesh K. Yadav (Assistant Professor)     अक्टूबर 20, 2024    

इंटरनेट पर वर्ल्ड वाइड वेब प्रयोग कर विविध जानकारी प्राप्त की जा सकती है। संक्षेप में इसे WWW या ‘वेब’ कहा जाता है। इसका उपयोग कर इंटरनेट उपभोक्ता उन वेब पेजों को आसानी से देख सकते हैं जिनमें टेक्स्ट, तस्वीर, वीडियो तथा अन्य मल्टीमीडिया होता है। इस तकनीकी को स्विट्जरलैंड के कम्प्यूटर वैज्ञानिक जॉन बर्नर्स-ली ने 25 दिसंबर, 1990 को विकसित किया, जिन्हें टिम बर्नर्स के नाम से भी जाना जाता है।  8 जून, 1955 को ब्रिटेन में जन्मे टिम बर्नर्स ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान हैकिंग के आरोप में पकड़े गये थे। स्वीट्जरलैंड स्थित यूरोपियन नाभकीय अनुसंधान संगठन में नौकरी के दौरान उन्होंने देखा कि अलग-अलग कम्प्यूटर में अलग-अलग तरह की सूचनाएं हैं। तभी उनके मन में विचार आया कि- सभी सूचनाओं को एक साथ सभी कम्प्यूटरों पर क्यों नहीं देखा जा सकता है? 

टिम बर्नर्स ने ‘इंफो डॉट सीईआरएन डॉट सीएच’ नाम से पहला इंटरनेट सर्वर बनाया, जो लालफीताशाही के चलते दुनिया के सामने नहीं आ सका और गुमनामी के अंधेरे में खो गया। इसके बावजूद टिम का हौसला कम नहीं हुआ और उन्होंने इंटरनेट कम्यूनिटी की दिशा में प्रयास जारी रखा। अंततः सन् 1991 में उनकी मेहनत सफल हुई। उनके द्वारा तैयार किया गया वर्ल्ड वाइड वेब ब्राउजर और इंटरनेट सर्वर दुनिया के सामने आ गया। तब यूरोपियन नाभकीय अनुसंधान संगठन ने दोनों पर अपना अधिकार जताया, क्योंकि उसकी कम्पनी में टिम बर्नर्स कार्यरत थे। 30 अप्रैल, 1993 को वर्ल्ड वाइड वेब ब्राउजर और इंटरनेट सर्वर तकनीकी की विश्वव्यापी उपयोगिता को देखते हुए WWW को अपने अधिकार से मुक्त करना पड़ा।   

इस तकनीकी से उपभोक्ताओं को जहां सूचना सम्प्रेषण का बेहतर माध्यम मिला, वहीं इंटरनेट पर सूचनाओं का भंडार आ गया। 24 मई, 1994 को यूरोपियन नाभकीय अनुसंधान संगठन ने वर्ल्ड वाइड वेब पर पहली कॉन्फ्रेंस आयोजित की, जिसमें टिम बर्नर्स ने इंटरनेट का दुरूपयोग रोकने के लिए एक संगठन बनाने की मांग रखी। परिणामतः जुलाई 1994 में ‘मैसाच्युसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी’ (MIT) ने संगठन बनाने की मेजबानी की। यूरोप में यूरोपियन नाभकीय अनुसंधान संगठन और अमेरिका में MIT को इस संगठन का मुख्यालय बनाया गया। इसका उद्देश्य वेब तकनीकी और सुविधाओं को बेहतर बनाना और दुरूपयोग रोकना है। हालांकि बाद में यूरोपियन नाभकीय अनुसंधान संगठन ने स्वयं को इस संगठन से अलग कर लिया, तब फ्रांस के ‘नोनल इंस्टीट्यूट फॉर रिसर्च’ को ‘कम्प्यूटर साइंस एण्ड कंट्रोल’ का नया मुख्यालय बनाया गया। वर्ल्ड वाइड वेब का कार्यालय अमेरिका के वर्जीनिया में है। किसी भी साइट को खोलने के लिए उस पते की जानकारी कूटभाषा में इस कार्यालय तक पहुंचानी पड़ती है, जो उस http (हाइपर टेक्स्ट ट्रांसफर प्रोटोकॉल) के माध्यम से जाती हैं।

ग्रामीण श्रोता कार्यक्रम (Rural Audience Programmes)

Dr Awadhesh K. Yadav (Assistant Professor)     अक्टूबर 20, 2024    

 आकाशवाणी का एक विशेष अनुभाग ग्रामीण श्रोताओं के लिए कार्य करता है। इसके लिए आकाशवाणी के सभी केंद्रों पर खेती गृहस्थी एकांश नामक यूनिट है। इस यूनिट का कार्य अपने कार्यक्रमों के माध्यम से ग्रामीण श्रोताओं के लिए उपयोगी जानकारी पहुंचाना है। इसके लिए एकांश में कृषि के अनुभवी और प्रशिक्षित व्यक्तियों की नियुक्ति की जाती है। इस एकांश को अपने प्रसारण क्षेत्र में आने वाले कृषि अधिकारियों, कृषि महाविद्यालयों के विशेषज्ञों, अनुभवी किसानों आदि के माध्यम से जानकारी एकत्र कर श्रोताओं तक पहुंचाने की जिम्मेदारी भी सौंपी गई है। यह एकांश केंद्र व प्रदेश सरकार द्वारा संचालित ग्रामीण विकास कार्यक्रमों की विस्तारपूर्वक जानकारी भी श्रोताओं तक पहुंचाने का कार्य करता है। किसानों व ग्रामीणों के लिए गोष्ठियों का आयोजित करता है। समय-समय पर ऐसी चौपाल लगाता है, जहाँ अधिकारियों और विशेषज्ञों के साथ बैठकर ग्रामीण अपनी समस्याओं से अवगत कराते हैं तथा समाधान के लिए विचार-विमर्श करते हैं। इस दौरान मनोरंजक वातावरण बनाने के लिए गीत-संगीत भी बजाया जाता है। 

इनके अतिरिक्त स्टूडियो में बैठकर कृषि वैज्ञानिकों और अनुभवी किसानों से श्रोताओं द्वारा भेजे गये प्रश्नों का निराकरण करने के साथ ही उनसे साक्षात्कार के माध्यम से ही उनसे नवीन तकनीकी आदि के बारे में उपयोगी जानकारी प्राप्त की जाती है। इस एकांश के प्रसारण के अधिकतर नाम बदलते रहे। इन्हें कभी ‘चौपाल‘, कभी किसान भाइयों के लिए कभी ‘चले गांव की ओर‘ आदि नाम दिये गये। आजकल अधिकतर केन्द्र इसे खेती-गृहस्थी के नाम से प्रसारित करते रहे है।

ग्रामीण श्रोताओं के लिए तैयार प्रत्येक कार्यक्रम को अपनी पहचान के लिए एक संकेत घुन होती है, श्रव्य के रूप में श्रोताओं तक पहुँचती है। आकाशवाणी में किसानों एवं ग्रामीण वर्ग के श्रोताओं के लिए प्रसारण हेतु निश्चित कार्यक्रम के पहले प्रसारित होने वाली संकेत धुन में बैलगाड़ियों को चलने की ध्वनि का प्रवाह के साथ उस क्षेत्र की लोक धुन को सम्मिलित किया जाता है। यह धुन ग्रामीण श्रोता कार्यक्रम की पहचान है।

सन् 1965 में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा कृषि और शिक्षा मंत्रालय के सहयोग से खेती-गृहस्थी एकांश का प्रायोगिक तौर पर दस केन्द्रों से प्रारंभ किया गया। यह केन्द्र जालंधर, लखनऊ, कटक, रायपुर, गुना, हैदराबाद, बैंगलूर, तिरूचि, दिल्ली, पटना थे। वर्तमान में विज्ञापन सेवा केन्द्रों को छोड़कर लगभग सभी केन्द्र खेती-गृहस्थी एकांश पर काम करते हैं, जिनके कार्यक्रमों की गुणवत्ता के लिए अपेक्षित प्रसारण सामग्री का अभाव भी दिखाई देता है।

आकाशवाणी के कई केन्द्रों में जहां खेती-गृहस्थी एकांश अधिक सक्रिय है, वहीं किसी विशेष फसल के समय चक्र को ध्यान में रखकर विशेष प्रसारण श्रृंखला का आयोजन भी किया जाता रहा है। उदाहरण स्वरूप यदि गेहूं की खेती से सम्बन्धित प्रसारण की श्रृंखला प्रारंभ की जाती है, जिसमें कृषि विशेषज्ञों और कृषि वैज्ञानिकों के सहयोग से गेहूं की खेती के लिए भूमि की तैयारी और बुआई से लेकर कटाई व भण्डार तक संपूर्ण प्रक्रिया को श्रृंखलाबद्ध तरीके से प्रसारित किया जाता है।


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